Thursday, 8 September 2016

                    .................... सच पूछो तो भारत का दो राष्ट्रों में बटवारा ही राजनीतिक एवं मानवीय द्रष्टि से गलत था । ऐसा इसलिये हुआ कि कुछ मुसलमान नेताओं नें ऐसे जनूनी बयान दिये कि वे हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते और उन्हें एक अलग राज्य चाहिये । अधिकाँश अपढ़ और भ्रम पूर्ण कहानियों पर पले गुमराह मुस्लिम जेहादी तत्वों नें हिंसा ,खून -खराबा और लूटमार के द्वारा जो पकिस्तान हासिल किया था वह 1971 में टूटकर दो हिस्सों में बट गया । कहा जाता था कि धर्म की समानता पूर्वी पाकिस्तान को सदैव लाहौर और रावलपिण्डी से बांधे रखेगी । स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में बंगलादेश का निर्माण जिहादी इस्लाम के मुँह पर करारा तमाचा था । आइये अब हम स्वात घाटी के अतीत के इतिहास की ओर चलें । कुशानों के राज्य में स्वात घाटी में बुद्ध विचारधारा का बोलबाला था और वहाँ एक सहस्त्र से भी अधिक भिक्षुओं के रहनें के मठ बने हुये थे । चीन से आये हुये पर्यटक लेखकों नें इस विषय पर काफी प्रकाश डाला है । लगभग एक हजार ईस्वी तक स्वात घाटी में बुद्ध और हिन्दू विचारधारा अपनें गैर सम्प्रदायी रूप में उपस्थित थी । स्वात घाटी का सौन्दर्य अपने में प्रशंसनीय तो है ही । स्वात घाटी के पास ही हिन्द कुश पहाड़ियों की श्रृंखलाएं हैं और यही है काफिरिस्तान जो कभी कपिशा के नाम से जाना जाता था । कहते है कि गुरु नानक को भी बाबर के आक्रमण के समय काफी बरबादी देखने को मिली थी । लुटेरे सैनिकों नें लूट मार और खून खराबा की हद कर दी थी । और शायद इसीलिये महापुरुष नानक ने जो सर्व धर्म सम भाव के समर्थतम पैगम्बर थे बाबर को जबर कहकर पुकारा था । ऐसा लगता है कि स्वात घाटी फिर से उसी जंगली व्यवस्था का शिकार हो रही है जो धर्म को रक्त की छीटों से सींच कर विकसित करना चाहती है । भारत वर्ष सहस्त्रों वर्षों से आन्तरिक विश्वास की बहुआयामी और बहुमुखी धाराओं को अपनी गोद में समेट -सहेज कर पारवारिक भाव से जीता रहा है । वह निश्चय ही कट्टर जेहादियों के उन्मूलन के लिये उठाये कदमों से सहमत है । अमरीका इस दिशा में उससे हर सहयोग की अपेक्षा कर सकता है पर हमें हमेशा  इस बात के लिये सतर्क रहना चाहिये कि हम फिर कहीं धोखा न खा जाँय । चीन का भाई -भाई का नारा चुपके से हमारी छाती में खंजर भोंक चुका है । सामासिक संस्कृति के नाम पर हम न जाने कितनी बार जेहादी इस्लामिक तत्वों से ठगे गए हैं । कबीलायी विश्वासोँ को राष्ट्र से ऊपर मान कर भ्रष्ट इस्लाम नें हमें कईबहुत बड़ी   चोटें पहुंचायी हैं । भारत को सजक रहना होगा कि भविष्य में ऐसा न हो । जनतन्त्र में निष्पक्ष चुनाव के द्वारा ही सत्ता संचालन का मार्ग प्रशस्त होता है ।  इस प्रतिबद्धता में जो कोई भी संगठन या अतिवादी गुट  आड़े आता है उसे समूल नष्ट कर देना चाहिये । तालिबान ,नक्सलवादी उत्तर पूर्व के आतंकवादी संगठन और दक्षिण की विभाजक मनोवृत्तियां सभी को समूल उखाड़ने के लिये हमें कृत संकल्प होना पडेगा । बहुत से अतिवादी विचारक गरीबी को हिंसा से जोड़कर हिंसा के कामों की जघन्यता को कम करने की कोशिश करते हैं । हम विश्वास करते हैं कि आने वाले कुछेक वर्षों में गरीबी और अतिवादिता दोनों की ही जड़ें भारत भूमि से उखाड़ कर फेंक दी जांयेंगीं । मानव विकास के क्रम में आज हम राजनीतिक संगठन के रूप में Nation State तक पहुँच चुके हैं । राष्ट्र धर्मिता इस समय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान की बात मानी जाती है । संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार के उल्लंघनों के प्रति अपना आक्रोश अवश्य व्यक्त करता है । पर किसी नेशन स्टेट की आन्तरिक हलचल में तब तक कोई दखल देने की बात नहीं सोचता जब तक सभ्य जगत का एक बहुत बड़ा वर्ग उसे ऐसा करनें के लिये बाध्य न करे । श्री लंका में लिट्टे के साथ चली फ़ौजी कार्यवाही में हजारों हजार सिविलियन हताहत हुये । लगभग सभी पश्चिमी देशों नें युद्ध विराम की अपील की । भारत नें लंका की फ़ौज और लिट्टे लड़ाकों से सयंम बरतनें को कहा  पर दुनिया के किसी भी देश नें प्रत्यक्ष रूप से दखल देकर लंका के आन्तरिक संघर्ष में घुसपैठ नहीं की अब सामान्यतः यह माना जा चुका है अपनी भौगोलिक सीमाओं के भीतर हर राष्ट्र अपनी समस्याओं को अपनें ढंग से सुलझायेगा । जहाँ तक हो यह समस्यायें अहिंसक और जनतांत्रिक ढंग से सुलझा ली जाँय । पर यदि मजबूर होकर राष्ट्र हित में सरकार को हिंसक विरोध का दमन करने के लिये फ़ौज का प्रयोग करना पड़े तो उसमें अन्य कोई देश दखल नहीं देते हैं
। उचित और अनुचित शक्ति प्रयोग के राजनीतिक वक्तव्य होते रहते हैं पर आन्तरिक व्यवस्था राष्ट्र की अपनी आन्तरिक नीतियों से ही परिचालित रहती  है । यातायात और संचार साधनों की विपुलता तथा सहज उपलब्धि नें राष्ट्रीयता को नये -नये अर्थों में रूपायित करना शुरू कर दिया है । अब सिख समुदाय को ही लीजिये । पंजाब में वे  भले ही बहुसंख्यक हों पर उनकी उपस्थिति न केवल भारत के अन्य प्रदेशों में है बल्कि संसार के बहुत से देशों में वह काफी बडी संख्या में उपस्थित हैं । अरब में जन्में मुहम्मद साहब के अनुयायी संसार के कितनें देशों में अपनी उपस्थित दर्ज करा रहे हैं । भारत के उद्योग शील व्यापारी कहाँ नहीं पाये जाते ? और जब संसार तकनीकी दक्षता ,स्वास्थ्य सेवाओं ,शिक्षा प्रबन्धन और उद्योग नियमन के लिये विशेष प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्तियों की मांग करता है तो कौन किस देश से चलकर कहाँ बस जायेगा यह कहा नहीं जा सकता । इन बदली परिस्थितियों में जो जिस देश में रहता है उसे उसी राष्ट्र के हित के लिये अपनें को संकल्पित करना पडेगा । यह ठीक है कि हम अपनें पूर्वजो की भूमि ,अपनें पूण्य स्थान और अपनें तीर्थकरों के प्रति गौरव भाव रखने का अधिकार है पर यह गौरव भाव यदि राष्ट्र हित से टकराता है तो हमें राष्ट्रीयता को प्राथिमिकता देनी होगी । अमरीका का नागरिक यदि हिन्दू है तो उसे अमेरिकन हित का पहले ध्यान रखना होगा और बाद में अपनें हिन्दू स्वाभिमान का । यदि सन्तुलित जीवन जिया जाये तो इन दोनों भाव धाराओं में कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता । पर जब हम मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और उन्मादी आवेश में आ जाते हैं तो असन्तुलन पैदा हो जाता है । यह उन्माद या जनून भाषा ,खान -पान ,वेशभूषा या धार्मिक आडम्बर के नाम पर उभारा जा सकता है । जनतन्त्र बहुलवादी संस्कृति को खुले मन से स्वीकार करता है । यह विरसता में समरसता की तलाश करता है । यह एक ऐसा संगीत है जिसमें भिन्न -भिन्न राग पिरोये गये हैं । जैसे -जैसे विश्व का मानव समाज जनतन्त्र के सच्चे आदर्शों के प्रति समर्पित होता जायेगा वैसे -वैसे विश्व शान्ति का सपना एक ठोस वास्तविकता बनकर उभरने लगेगा । दो विश्व महायुद्धों के बाद मानव जाति अभी तक तीसरे विश्व युद्ध से बची हुयी है और इसका मुख्य श्रेय धरती के अधिकाँश मानव समाज द्वारा जनतान्त्रिक मूल्यों की स्वीकृति ही है । अविकसित देशों में और पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में जीवन स्तर की दुखदायी भिन्नताओं के कारण कुछ हिंसक विचारधारायें आकर्षक लगने लगती हैं । इनका एक मात्र उपाय यही है कि आर्थिक सम्पन्नता का जनतान्त्रिक नीतियों से ऐसा प्रबन्धन और वितरण हो कि उसका सीधा लाभ समाज के वंचित लोगों को मिलता रहे । पर सब कुछ कहने के बाद यह कहना शेष रह जाता है कि लड़कर मरना मानव स्वभाव की एक विकृति ग्रन्थि है जिसे उसने लाखों वर्षों के अस्तित्व संघर्ष में विरासत में पाया है । स्वात घाटी के तालिबान के हाथ में अगर पाकिस्तान के परमाणु बमों का भण्डार पड़ जाय तो मुल्ले और मौलवियों को तो छोड़ दीजिये स्वयं हजरत मोहम्मद भी उन्हें सम्पूर्ण मानव विनाश करने से रोक नहीं सकते । ऐसा इसलिये है कि वे दो पैरों पर चलने वाले हिंसक वनचर ही हैं जो जंगलों से हटकर पहाड़ी गुफाओं में आ बसे  हैं । उन्हें मनुष्य कहना सभ्य मानव समाज के माथे पर न मिटने वाली कालिख का टीका लगाना है । 

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