Monday 15 August 2016

धरती की छाती ही ..........

                           धरती की छाती ही इतनी विशाल है कि शीत ,ताप ,वृष्टि अनावृष्टि ,तूफ़ान ,भूकम्प ,झंझावाद ,वायु -स्तम्भन आदि सभी कुछ झेलकर मौन भाव से अपना कर्तब्य निभाती चलती है । जगत माता सीता भी धरती से ही जन्मी थीं और धरती में ही प्रविष्ट कर गयी थीं इसीलिये तो वे नारी के सर्वोत्तम आदर्श के रूप में प्रत्येक भारतीय घर में पूजित हैं । विशाल ह्रदय और असहाय के प्रति अपार करुणा से भरे औदार्य के माध्यम से ही उन उपेक्षित वर्गों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है जो आशाहीन होकर अमर्यादित राहों पर चल पड़े हैं । सीता का मौन सभी महाकाब्यो के सम्मिलित स्वरों से भी कहीं अधिक प्रभावशाली जान पड़ता है । सामाजिक चिन्तन की जड़ता और नारी के प्रति सामाजिक विकलांग मनोवृत्ति हमें अधिकतर कथा प्रसंगों में मिलती है । महामानवीय सीता की सहनशीलता में भी मृत पाय समाज को ललकार कर जागृत करने की जो विद्वतीय शक्ति छिपी है वही तो चिरन्तन ऊर्ध्वगामी परिवर्तन की पीठिका है । आजादी  की 70 हवीं वर्ष गाँठ पर लालकिले की प्राचीर से नारी शशक्तीकरण के लिये फिर से एक गुरु गंभीर स्वर गूँजा है । वर्ष पर वर्ष बीतते चले जा रहे हैं पर राजनीति के अखाड़े में दण्ड पेलने वाले पहलवान अभी तक पारस्परिक ईर्ष्या द्वेष से मुक्त नहीं हो सके हैं । एकाध अखाड़ची तो ऐसी बात कह देता है कि जो इतनी हास्यास्पद होती है कि उसकी चर्चा करने से ही मन में घृणा उत्पन्न हो जाती है । नर और नारी का सृजन तो प्रकृति की किन्हीं अनिवार्य कारणों से घटित होता है कि कुछ अपवादों को छोड़कर बिल्कुल प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है । बाकी जितने भी विभाजन हैं या खण्डित मानवता के व्यूह जाल हैं वे सब के सब हमारी सामाजिक संरचना की देंन हैं । नख -शिख और रंग भेद कुछ अंशों तक प्रकृति की विपुलता और विविधता से नियन्त्रित माना जा सकता है पर बाकी सभी कुछ तो फितरती दिमागों की करतूत ही है । कौन हिन्दू नारी है ,कौन मुस्लिम नारी है ,कौन सिख नारी है इसकी पहचान के लिये राजनीतिक अखाड़े के पहलवान कौन से मापदण्ड अपनायेंगे यह आने वाला समय बतायेगा । पर इससे भी बड़ी समस्या है हिन्दू समाज के उस विभाजन की जिसमें कोई यादव नारी है ,कोई बुनकर नारी है ,कोई चर्मकार नारी है तो कोई श्रमकार नारी है । इतिहास तो हमें यही बताता है और न केवल भारत का इतिहास बल्कि विश्वस्तरीय इतिहास के दुर्गम विजेताओं नें नारी को सिर्फ कामभावना के उत्तेजक के रूप में ही तौला है । उन्हें और किसी रूप से यानि जाति ,वर्ग ,समुदाय या धर्म की तराजुओं पर तौला ही नहीं गया । यह नयी तौल तो भारत के जनतन्त्रीय व्यवस्था में पनपे राजनीतिक अखाड़चियों की नयी ईजाद है । इस खोज के लिये उनमें से कइयों को विश्वस्तर पर सम्मानित होना चाहिये । यह दूसरी बात है कि इस सम्मान में कोई हास्यास्पद वस्तु उन्हें पेश की जाय ।
                                   सच तो यह है कि हजारों वर्षों से स्त्री को पुरुष से घटाकर सामाजिक सम्मान मिला है । इस घटौती में  उसका अपराध केवल उसका नारी होना ही था । हिन्दू नारी ,मुस्लिम नारी या ईसाई नारी होना नहीं । दलित और पिछड़े वर्ग तथा अगड़े वर्ग नारी का विभाजन तो फूहड़पन का ही परिचायक है । उसमें छोटी -छोटी  टोलियों में घेराबन्दी कर स्वार्थ साधने की राजनीतिक  साजिश छिपी हुयी है । भारत की माटी भारतीय नारी को नर की समानता के सारे अधिकार देने की पैरवी करती है । पर यह अवश्य चाहती है कि वह अपने मातृत्व के गौरव को और किसी भी अधिकार से छोटा करके न देखे । प्रगति के मार्ग में सदैव कोई न कोई बाधायें आ खड़ी होती हैं । ब्रम्हाण्डीय नियम मानव समाज के सुख दुःख के प्रति उदासीन रहते हैं । कब मानसून आयेगी और कब नहीं यह हमारी इच्छा पर निर्भर  नहीं है । कब सुनामी की लहरें उठेंगीं या समुद्री तूफ़ान की टक्कर लगेगी यह भी हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं है । कैसे Bird Flew का वायरस फैलने लगता है और कैसे Swine Flew दुनिया को अपनी चपेट में ले लेता है इस पर भी हमारा पूरा नियन्त्रण नहीं है पर हम इन सभी अवरोधक और हानिकारक`घटनाओं को सामूहिक प्रयास से कम विनाशकारी अवश्य बना सकते हैं । हो सकता है एक दो दशकों के बाद हम खेती की नयी तकनीक और नये बीजों के बल पर अपनी उपज दुगनी -चौगुनी कर लें पर अभी तो हमें अपनें भण्डारों पर ही निर्भर रहना होगा पर यदि आवश्यकता आ पड़े तो बाहर से भी आयात करने में भी कोई हेठी नहीं है । अन्ततः विश्व एक गाँव ही तो है और दूरियाँ सिमट कर सेकेण्डों और मिनटों में बदल गयी हैं । वर्षा की बौछारों नें उत्तर भारत की तपती धरती को शीतलता प्रदान  की  है हम चाहते  हैं कि तरुण और मेधावी छात्र जो विज्ञान के विद्यार्थी हैं आगे चलकर अपनी प्रतिभा ,वैज्ञानिक दक्षता और तकनीक अभूतपूर्वता के बल पर कुछ ऐसा कर दिखायें कि कमजोर मानसून से भी उतना पानी मिल जाये जितना सशक्त मानसून से । ऐसा सोचना असम्भव सोचना नहीं है क्योंकि कल का संसार  किसी अद्धभुत मायालोक से कम नहीं होगा । जिसमें अधिकाँश प्राकृतिक शक्ति मानव के नियन्त्रण सीमा में आ जायेगी पर फिर भी कोटि -कोटि तारक वीथिकाओं के पीछे रहस्यमयी मुस्कान लिये ब्रम्हाण्ड के आदि श्रष्टा की कल्पना को सर्वथा नकारा नहीं जा सकता । हम आस्तिक वैज्ञानिक बुद्धि को विश्व मानव कल्याण का आधार बनाना चाहते हैं । अपार शक्ति पा कर ही अपार दया भाव उत्पन्न होता है । यदि श्रष्टि का रहस्य सम्पूर्ण रूप से व्याख्यायित हो जाय तो भी सरस जीवन के लिये रहस्य की एक अभेद्य कल्पना कवच की आवश्यकता तो बनी ही रहेगी । स्वतन्त्रता दिवस की 70 ह्वीं वर्ष गाँठ पर आप सबको बधाई । 

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