Sunday 14 August 2016

अर्नाल्ड ट्वायनवी ...................

                                    अर्नाल्ड ट्वायनवी  नोबेल विजेता इतिहासकार की मान्यता है कि यदि कोई देश विदेशी तकनीक ,विदेशी भेष -भूषा ,विदेशी खान -पान और जीवन निर्वाह की विदेशी शैली स्वीकार कर लेता है तो उस देश में रहने वाले मानव समाज के मूल्य बोधों में भी परिवर्तन हो जाता है इस परिवर्तन में एक लम्बा समय लग सकता है क्योंकि किसी भी देश का सम्पूर्ण समाज एक साथ विदेशी विचारधारा की समग्र पकड़ में नहीं आता । कई स्तरों पर और कई खण्डों में यह परिवर्तन चलता रहता है । यही कारण है कि कई बार शताब्दियों तक संविधान में लक्षित जीवन मूल्य जन समुदाय के विशाल हिस्से के भाग नहीं बन पाते । ट्वायनबी नें मानव सभ्यता के भिन्न -भिन्न कालखण्डों से उदाहरण प्रस्तुत कर अपनी बात को वैज्ञानिक तर्क पर आधारित करने का प्रयत्न किया है । बीसवीं शताब्दी के मध्य  तक मानव विकास के दिग्गज विद्वान यह मान कर चलते थे कि संस्कृति का सम्बन्ध मानव जाति की भिन्न नस्लों के साथ जुड़ा रहा है । मानव जाति को पाँच , छह नस्लों में बाँटकर उनके साथ संस्कृतियों की भिन्नता को व्याख्यायित करने का प्रयास होता रहता था । फिर आये वे विद्वान नृतत्वशास्त्री जिन्होनें प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल की मिथिकों ,कल्पनाओं और मृत्यु तथा जीवन से सम्बंधित अनुमानों को एक दूसरे का पूरक बताया । उनका कहना था की नस्ल वादी सांस्कृतिक व्याख्यायें अवैज्ञानिक हैं । प्रागैतिहासिक काल की बचकानी ,अधपकी पशु मानव चिन्तन पर आधारित अनुमान और कल्पनायें ही मिथकीय रूप लेकर ऐतिहासिक काल में दार्शनिक अवधारणाओं को जन्म दे सकीं थीं । इस प्रकार संस्कृति का सम्बन्ध विशिष्ट ,सामान्य या निम्न नस्लों के के आधार पर व्याख्यायित करने का अर्थ सभ्यता की विकास वाली धारणा को जड़ मूल से नकारना होगा । संस्कृतियों की विभिन्नतायें वस्तुतः भौगोलिक ,जलवायुकि ,ब्रम्हाण्डीय और जीवन सरंक्षणीय कारणों की अपार विभिन्नताओं के कारण अपने प्रारम्भिक रूप से उद् भुत हुयी थीं ।सहस्त्रों   वर्षों के लम्बे काल में  वे एक दूसरे से घुलती -मिलती और टूटती -जुडती रहीं । कहीं प्रस्तरण हुआ कहीं संकुचन । कहीं विस्फोटन हुआ कहीं अवगुंठन । इस प्रकार विश्व की कोई भी संस्कृति अपनें में इतनी विशिष्ट नहीं है कि उसे अन्य संस्कृतियों से सर्वथा अलग एक नयी मानव जीवन शैली के रूप में   स्वीकार कर लिया जाय । बहुत गहरायी से झांकनें पर हम पायेंगें कि अपने प्रारम्भिक काल  में संस्कृति सभ्यता के साथ अभिन्न रूप से जुडी हुयी थी । उदाहरण के लिये मानव द्वारा नग्न शरीर को आच्छादन देने की क्रिया को ले लीजिये । प्रजनन से जुड़े शरीर के कुछ अंगों को विकास के जिस दौर में मनुष्य नें ढककर सभ्य बनने का प्रयास किया वह प्रागैतिहासिक काल के उस दौर में पहुँचता है जहाँ मनुष्य वनमानुष से अलग होकर अगले दो पैरों को हाँथ बनाने की आदिम चेष्टा में रत था । सभ्यता की यह प्रक्रिया गोर ,पीले ,काले गेहुंए आदि किसी भी रंग या नाक ,आँख के किसी भी डिजाइन से बिल्कुल मुक्त वनमानुषों की शाखा में से निकल कर आने वाली आज की मानव जाति की सबसे आदिम पीढी से था । व्यक्तिगत रूप से वहाँ भी अपार विभिन्नता रही होगी पर सामूहिक रूप से नग्न ,द्विपद वनचारियों का एक ऐसा समूह अस्तित्व में आ गया था जो सीधे खड़े होकर प्रजनन के लिये प्रयुक्त होने वाले अपनें शारीरिक अंगों को देख सकता था । धीरे -धीरे शताब्दियों तक चलते हुये प्रजनन व्यापार में उसे यह लगा होगा कि मिथुन की प्रक्रिया अकेले एकान्त में अधिक आनन्ददायक और बाधा रहित होती है ।   प्रजनन के लिये प्रकृति द्वारा बनाये गये इन शारीरिक अंगों को आच्छादन से ढक लेने में उसे पशुओं से अलग अपनी विशिष्ट पहचान बनाने का एक मार्ग मिल गया । समूहिक रूप से स्वीकृति मिल जाने पर वस्त्र धारण मानव सभ्यता की सबसे सबल आधारभूमि बनने लगा । प्रागैतिहासिक काल में आच्छादन की भिन्नता क्षेत्र विशेष की वानस्पतिक भिन्नता पर आधारिक रही होगी । सहस्त्रों वर्षों के विकास क्रम में शरीर का यह आच्छादन सहस्त्रों वर्षों में अपना रूप रंग बदलता रहा है । इस शारीरिक आच्छादन को हमें किसी संस्कृति विशेष जे जोड़ कर देखना न तो वैज्ञानिक लगता है और न ही तर्क संगत । यह समझ में आने वाली बात है कि प्रारम्भिक अवस्था में शरीर को किसी प्रकार ढक लेना ही आवश्यक होता होगा और फिर सैकड़ों पीढ़ियों तक मष्तिष्क की तंत्रिकायें विकसित होकर परिधान के नये -नये आकार खोजती रहीं । हाँथ ,पैर ,ग्रीवा कटि और वक्ष की बनावट नें विकसित मष्तिष्क से नये परिधान रूपा कटियों की माँग की और इस प्रकार आज संसार के फैशन बाजारों में परिधान का निरालापन सभ्यता और विशिष्टता का प्रतीक बन गया । जो बात वस्त्रों पर लागू होती है वही भोजन की अपार विभिन्नताओं पर भी । बाधा रहित प्रजनन नें विपुल श्रष्टि की योजना बनायी और समूहों में बटकर आदिम मानव जाति जीवन का जोखिम उठाती हुयी घने जंगलों ,गहरे दलदलों ,जलते रेगिस्तानों और ऊँचे पहाड़ों में घूम -फिर कर भोजन की सहज उपलब्धता की तलाश करती रही । यद्यपि आज धरती पर अहार की अपार विभिन्नता और चक्राकार विपुलता है पर फिर भी अभी तक सम्पूर्ण मानव जाति को भोजन उपलब्ध कराने की योजनायें फलीभूत नहीं हो पायी हैं । खान -पान की इस विभिन्नता को भी किसी विशेष प्रजाति से जोड़ने का अर्थ आधारभूत कारणों की नासमझी से ही सम्भव है । जो बात भोजन और आच्छादन की विभिन्नता पर लागू होती है वही बात शीत ,आतप और बरसात से बचने के लिये घरौन्दें बनाने पर भी लागू होती है । गुफाओं से निकलकर गुफानुमे घरौंदें और फिर द्विपदी होने के कारण ऊँचाई पर पड़ा कोई आवरण जो शरीर को ढक कर भी सिर को सुरक्षित रखे । यह बहुत छोटी -छोटी आदिम क्रियायें मानव सभ्यता का आधार रही हैं । आज आसमान छूती अट्टालिकाओं की बगल में बने छोटे -छोटे पोलीथीन से ढके घरौन्दें जिन्हें हम झुग्गी -झोपड़ी कहते हैं दरअसल मष्तिष्क की एक ही चिन्तन प्रक्रिया से जन्मे हैं । यह  सोचना कि अट्टालिकायें गोरी संस्कृति का प्रतीक हैं और घरौंदे काली संस्कृति का महज एक बचकानी समझ ही मानी जायेगी ।
                                    हम अर्नाल्ड ट्वायनवी को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार न करते हुये केवल इतना मान सकते हैं कि सभ्यता और संस्कृति निरन्तर एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है । पश्चिमी और पूर्वी संस्कृतियां कल तक बहुत अलग -अलग दिखायी पड़ रही थीं पर आज एक मिलीजुली विश्व संस्कृति समाज में उभर कर आती दिखायी पड़ती है । बंगाल के पूर्व मुख्य मन्त्री नें जब यह कहा था कि बाबरी मस्जिद का गिराना एक Barbaric घटना है । तो वह सिर्फ यह कहना चाहते थे कि सभ्य मनुष्य मजहब के नाम पर हिंसा या विध्वंस  नहीं करता । आदिम या जंगली जातियाँ ही ऐसा काम कर सकती हैं । इस सबका अर्थ यह है कि विध्वंस और हिंसा से दूर रहना मानव सभ्यता का एक अनिवार्य गुण होना चाहिये । अहिंसक बुद्ध और अहिंसक गांधी इसी लिये बड़े हैं कि उन्होंने पशुबल को आत्मबल से नियन्त्रित करने की बात कही है । इसी प्रकार विश्व की किसी भी सभ्यता में चोरी ,परस्त्रीगमन ,और बलात संपत्ति हरण निन्दनीय कार्य माने जाते हैं । स्पष्ट है कि मानव संस्कृति में इनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान  है और एक सभ्य मनुष्य तभी संस्कृत बनता है जब वह इन निन्दनीय कार्यो से ऊपर उठ जाता है । दरअसल तानाशाही और साम्राज्यवाद के युगों में चिन्तन भी अहंकार की सीढी में चढ़कर अपना सर ऊँचा करने लगता है ।
                                         एक युग था जब यूनान की सभ्यता विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी । फिर रोम विश्व सभ्यता का केन्द्र बन गया । साम्राज्यवादी ब्रिटेन सैकड़ों वर्षों तक यह सोचता रहा कि उसकी सभ्यता ही संसार को सर्वश्रेष्ठ संस्कृति को जन्म दे सकती है । आज सारी दुनिया के आगे उसके अहंकार का खोखलापन साबित हो चुका है । अमेरिका का एक वर्ग भी इस गलतफहमी में पड़ गया है कि अमेरिकन सभ्यता ही विश्व संस्कृति का आधार बनेगी । सौभाग्यवश अमेरिका में विचारकों का एक  शक्तिशाली वर्ग अभी भी स्वस्थ्य चिन्तन में लगा हुआ है । उसे इस बात का अभिमान नहीं है कि दुनिया अमरीका की राह पर चले पर इस बात का आग्रह जरूर है कि दुनिया जनतन्त्र की राह पर चले । अब जनतन्त्र की धारणा पर भी चीन की अपनी दार्शनिक व्याख्या है और ईरान की अपनी । इन विवादों में पड़कर हमें मानव संस्कृति को खण्ड रूपों में नहीं देखना होगा । विश्व संस्कृति का विकास आदिम मानव के अन्तरिक्ष मानव तक विकसित होने की अमर गाथा है । राष्ट्रीय सभ्यताओं के अपने -अपनें चेहरे हैं । उन  चेहरों पर अपने -अपने टोप ,मुकुट ,पगड़ियाँ ,टोपियाँ और केश अलकृतियाँ हैं पर विश्व संस्कृति का आधार बनने के लिये जो मूलभूत उपादान आवश्यक हैं वे भारत की पावन मिट्टी में जन्में -पले हैं और सदैव जन्मते -पनपते रहेंगें । बुद्ध का अष्ट मार्ग , गान्धी का अहिंसा दर्शन , नानक का मानव समानता का मूल मन्त्र यही तो है मानव संस्कृति का मूल आधार । यदि पश्चिम इन्हें यह कहकर अस्वीकार  नहीं करता कि ये सब भारत में जन्में हैं । तो हम भारतवासी अहिंसा ,क्षमा और दया के देवता ईसा मसीह को भी भारतीय बना लेने के लिये सहर्ष प्रस्तुत हैं । सूफी पैगम्बर शेख सलीम चिस्ती तो हमारे पास हैं हीं और यदि जिहादी अपना जनून छोड़ दें तो हम मुहम्मद साहब को भी अपने गले का हार बना सकते हैं । भारत ही है जिसने सेकुलरिजम की नास्तिकवादी विचार धारा को नकारा है  और उसे सर्व धर्म समभाव में ढाला है । यदि धर्म को हिंसा के द्वार  से हटाना  है तो भारत की सर्व धर्म समभाव की धारणा ही विश्व को स्वीकार करनी पड़ेगी । कब ऐसा होगा हम नहीं जानते पर ऐसा हुये बिना विश्व संस्कृति का मूल आधार दृढ नहीं किया जा सकता । 

                                          

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