' माटी ' के आठ वर्ष पूरे हो गये हैं । छपे शब्दों की नग्न बाजारी दौड़ में भारतीय तहजीब की सुसंस्कृत वेषभूषा पहन कर 'माटी 'ने दौड़ से बाहर करने वालों को एक चुनौती भरी ललकार लगायी है । 'माटी ' न केवल जीवित है बल्कि उसकी जीवन्तता में निरन्तर निखार आ रहा है । सुधी पाठक स्वयं जानते हैं कि छपाई और साज -सज्जा के स्तर पर 'माटी ' भले ही सामान्य स्तर पर खड़ी हो पर जहाँ तक उसके भीतर समाहित रचनात्मक तत्वों का प्रश्न है उसका स्थान हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में सर्वोच्च श्रेणी में ही आता है । साज -सज्जा और छपाई वित्तीय विपुलता की माँग करते हैं और ' माटी ' का पाठक मध्य वर्गीय प्रबुद्ध नागरिक है जो स्वस्थ्य पठनीय विचार सम्पदा के लिये अपनी सीमित कमाई से बहुत अधिक राशि नहीं निकाल पाता । पूँजी जुटाने के लिये अस्मिता का सौदा करना ' माटी ' को सदैव नामंजूर रहा है और रहेगा । प्रारम्भिक लड़खड़ाहट के बावजूद हमारे डगों में विश्वास भरी त्वरा शक्ति आती जा रही है और शीघ्र ही हमारा प्रसार हिन्दी भाषा -भाषी अन्तर -प्रान्तीय आयाम छूने लगेगा । इस बीच भारत के राजनीतिक क्षितिज पर नवजागरण की सुवाहन लालिमा दिखायी पड़ने लगी है । ऐसा लगने लगा है कि एक समग्र राष्ट्रीय द्रष्टि फिर से उभर कर क्षेत्रीय विखण्डता से टक्कर लेने को सजग हो चुकी है । यह उभार, स्वागत के योग्य है । क्योंकि अखण्ड राष्ट्रीय विचार पीठिका पर खड़े होकर ही हम भूगोल की वर्तुल सीमाओं को अपने आगोश में ले पायेंगें । जाग्रति का सबसे प्रबल पक्ष है भारत की अजेय तरुणाई का लोकरंजक और जन कल्याणकारी राजनीतिक परिद्रश्य में सशक्त योगदान । ' माटी ' तो चाहती ही है कि भारत की उर्वरा भूमि में लाखों हँसते लहराते लाल राष्ट्र को फिर से संसार की श्रेष्ठतम कर्मभूमि और स्वस्थ्य भोग भूमि बनाने के लिये आगे आयें । सम्भवतः धुँधलके को और अधिक साफ़ होने में अभी थोड़ी बहुत देर है पर ऐसा आभाष अवश्य हो रहा है कि तमस की कालिमा छटने लगी है हमें सावधान होकर यह देखना होगा कि सेंसेक्स की उछालें हमारे लिये आर्थिक प्रगति का प्रतीक न बन जायें । दरिद्रता मानव जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है और हिन्दी भाषा -भाषी प्रदेशों का एक काफी बड़ा हिस्सा दरिद्रता की चपेट में है । इस वर्ग को दरिद्रता की श्रेणी से निकालकर सहनीय गरीबी के उपेक्षणीय क्षेत्र में लाकर खड़ा करने के लिये भी बहुत अधिक इच्छाशक्ति और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासनिक व्यवस्था की आवश्यकता है । हम यह मानकर चलते हैं कि चालीस और पचास वर्ष के बीच चलने वाले परिपक्व तरुणों के द्वारा भारत की राजनीति ऐसा कुछ असरदार कर दिखायेगी जो दरिद्रता का कलंक धो पोंछकर साफ़ करने में सफल हो सकेगी । निकट भविष्य में भारत की आर्थिक प्रगति और न जाने कितने अम्बानी , टाटा ,और सुनील मित्तल को उभार कर विश्व के सबसे धनी उद्योगपतियों की श्रेणी में स्थान दिला देगी । हम चाहेंगें कि केन्द्र का अक्षय कोष निरन्तर उन जरूरत मन्दों के लिये खुला रहे जो शताब्दियों से आर्थिक व्यवस्था के हाशिये पर खड़े रहे हैं । अकबर के प्रसिद्ध सभासद अब्दुल रहीम खानखाना जो महाभारत के कुन्ती पुत्र कर्ण की भांति अपने दान के लिये प्रसिद्ध थे का एक दोहा हमें याद आता है ।
" देन हार कोहु और है ,भेजत है दिन रैन
लोग भरम हम पर करैं ,ताते नीचे नैन । "
"माटी ' चाहती है कि सरकारें आत्म श्लाघा से ऊपर उठकर नीचे नैन करके वंचित समुदाय की सेवा में निष्ठापूर्वक लग जाने का व्रत लें ।
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