नोबेल पुरुस्कार विजेता अमृत्य सेन की प्रसिद्ध किताब है ( " The Argumentative Indian." ) द अर्गूमेन्टेटिव इण्डियन । उनके अनुसार भारत के लोग व्यर्थ की बहस मुहायसे में अपना समय बर्बाद करते रहते हैं । यदि हमारे पास कोई ठोस तर्क न हो या गहरा चिन्तन न हो तो शब्दों की फिजूलखर्ची से बचना चाहिये । चुप रहना भी एक साधन है । भारत में मौन व्रत का बड़ा महत्व था और कई सन्त महात्मा मौनी बाबा के नाम से जाने जाते थे । प्रत्येक माह में यदि हम एक दिन का मौन व्रत कर लें तो उससे हमें काफी मानसिक शक्ति अर्जित हो जाती है । हमारे देश में बुजुर्गों को भी टोका -टोकी की बहुत आदत होती है और जहाँ आवश्यक नहीं है वहाँ भी वे टीका -टिंप्पणी करते रहते है । यह ठीक है कि बुजुर्गों की इज्जत करनी चाहिये और उनकी राय को महत्त्व देना चाहिये । पर बिना मांगें दी हुयी राय कई बार अनादर को जन्म दे देती है । घर की बुजुर्ग औरतें नयी बहुओं के प्रति एक उदासीन द्रष्टिकोण अपनाकर उन्हें अपने से अनुभवहीन समझकर कुछ न कुछ ज्ञान देती रहती हैं । वे भूल जाती हैं कि नयी पीढ़ी की लड़कियाँ एक नये सामाजिक द्रष्टिकोण से जीवन को देखने परखने लगी हैं । और पुरानी नैतिकता या आचरणशीलता अब बेमानी हो चुकी है । दरअसल यदि हम कम बोलने की आदत डाल लें तो हमारे सोचने की ताकत भी बढ़ जाती है । गहरे विचारों के लिये शान्त मष्तिस्क की आवश्यकता होती है । राजनीति को ही लें अब यदि चुनाव के दौरान नेताओं को रोज बोलना ही है तो उनसे किसी गंभ्भीर विचारधारा की प्राप्ति का अवसर ही नहीं मिल पायेगा । कई बार वे उल्टी -सीधी और निरर्थक और घिसी -पिटी बांतें दोहराने लगते हैं । उनका भाषण ऊब पैदा कर देता है । शायद यही कारण है कि अब हर पार्टी के तथाकथित नेताओं के लिये प्रलोभन देकर भीड़ जुटायी जाती है ,बोलना एक कला है पर वह निरर्थक कला नहीं है । वह मानव उत्थान की सबसे कारगर सीढ़ी है । वैज्ञानिक प्रयोगों से पाया गया है कि यदि आप कुछ घंटों का मौन भी कुछ दिन रख लें तो आपकी जीवन शक्ति में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हो जाती है । अब अगर राहुल गांधी कैबिनेट के पास किसी अध्यादेश को बकवास कह कर फाड़कर फेंक देने की बात कहते हैं तो उन्हें बाद में अपने अनुचित शब्दों के प्रयोग पर लीपा -पोती करनी पड़ती है । बोल का हर शब्द तोल पर खरा उतरना चाहिये । हर तर्क तथ्यों पर आधारित होना चाहिये । शान्ति की मार उससे कहीं अधिक गहरी होती है जितनी कि व्यर्थ की बकवास से मिल पाती है । कई बार ऐसा होता है कि मौन रहने से आप की मूर्खता भी छिपी रहती है । किसी विषय पर आपके पास कुछ कहने को न हो तो चुप रहने से अन्य लोगों को यह भ्रम बना रहता है कि आपके पास कुछ गहरा कहने को है भ्रम की यह स्थिति कहीं अधिक अच्छी है क्योंकि आप यदि बोलने लगेंगें तो आपकी मूर्खता निरर्थक बातों में उजागर हो जायेगी । इसलिये जब आपके पास कुछ कहने को हो और निराला मैटीरियल हो तो मौन की शरण नहीं लेनी चाहिये । हाँ अपनी बात को जबरजस्ती किसी पर लादा नहीं जा सकता पर तर्क की अकाट्यता एक न एक दिन अपना रंग दिखा ही देती है ।
जो बात न बोलने पर लागू होती है वही तर्क न लिखने पर भी लागू होता है । जब आपके पास किसी विषय पर औरों से अलग कोई तर्क संगत विचार सरणि न हो तब तक आपका न कुछ लिखना ही ठीक है । हर पढ़ा लिखा आदमी बहुत अच्छा लेखक नहीं बन सकता पर यदि प्रयास करे तो बहुत अच्छा पाठक बन सकता है । समाज में एक प्रकार का भ्रम है कि लेखक पाठक के मुकाबले ज्यादा प्रबुद्ध होता है पर यह भ्रम मात्र है । बहुत से पाठक लेखकों के मुकाबले बहुत अधिक जानते हैं और अधिक अच्छे ढंग से अपनी बात लिख सकते हैं पर उन्हें लेखन को होल टाइम वर्क के रूप में स्वीकार करने में आपत्ति होती है क्योंकि विशुद्ध लेखन के बल पर परिवार चलाना सभी के लिये सभ्भव नहीं है । अपवाद हैं पर उन अपवादों से यही नियम सिद्ध होता है कि आजीविका के लिये कोई ऐसा काम कर लेना चाहिये जिससे एक निश्चित आय होती रहे । लिखना भी एक प्रकार से मानसिक तनाव से मुक्त होना है । और जब अधिक तनाव हो जाय तो यदा -कदा लिखने का अभ्यास कर लेना चाहिये । श्रेष्ठ लेखक या श्रेष्ठ वक्ता होना काफी कुछ प्रकृति दत्त प्रतिभा पर निर्भर होता है । अभ्यास से इसे थोड़ा -बहुत संवारा -सुधारा जा सकता है । यह बात सभी कलाओं और सभी हुन्नरों पर लागू होती है । अधिकाँश लड़के क्रिकेट खेल लेते हैं पर राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचना कुछ विरलों को ही नसीब होता है । विश्वविद्द्यालय के लाखों ग्रेजुएट्स में 10 -20 को ही मेरिट पर स्थान मिलता है । हजारों -हजार आदमी शतरंज खेलते हैं पर विश्वनाथन और कार्लसन बनना विरलों के नसीब में ही है । दुनिया के हर क्षेत्र में ,हर हुनर में ,हर कला में ,हर तकनीक में हजारों पायदान हैं । ऊँचे पायदानों पर पहुँचाना बहुत कठिन है ।
सभी प्रयास सफल नहीं होते इसलिये जीविका के लिये हमें कुछ ऐसे हुनर सीखने चाहिये जो जमीनी स्तर पर हमारे लिये रोटी -सब्जी का जुगाड़ करते रहें । नाई ,दर्जी ,धोबी ,मोची ,राजमिस्त्री ,प्लम्बर ,टिम्बर ,लघुकार ,कास्तकार आदि ऐसे हुनर है जो साधारण जन को रोटी मुहैया कराते हैं । सामजिक सोच में अपंगता आ जाने के कारण इन हुन्नरों को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाती जो गायन ,नर्तन ,अभिनय और खेलों के विविध रूपों को । हमें किसी भी काम को हेठी की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये । ईमानदारी और निष्ठा से किया हुआ प्रत्येक कार्य पूजा जैसा ही पवित्र होता है । हर कला या हुनर के दो पक्ष होते हैं ,एक समाज हितकारी ,एक समाज अहितकारी ।
शब्दों का इस्तेमाल भी इन्हीं दो विभाजन खण्डों से घेरा जा सकता है । अनावश्यक मत बोलिये पर यदि आपके पास मौलिक चिन्तना है तो अवश्य बोलिये । लिखने के लिये मत लिखिये पर यदि आपके पास औरों से कुछ बेहतर ढंग से लिखने को है तो अवश्य लिखिये । अरे भाई !हमें गजानन माधौ मुक्ति बोध की इन पंक्तियों को सदा ध्यान रखना चाहिये । "जो कुछ है उससे कुछ बेहतर होना चाहिये ,हम सबको थोड़ा बहुत मेहतर होना चाहिये । "
जो बात न बोलने पर लागू होती है वही तर्क न लिखने पर भी लागू होता है । जब आपके पास किसी विषय पर औरों से अलग कोई तर्क संगत विचार सरणि न हो तब तक आपका न कुछ लिखना ही ठीक है । हर पढ़ा लिखा आदमी बहुत अच्छा लेखक नहीं बन सकता पर यदि प्रयास करे तो बहुत अच्छा पाठक बन सकता है । समाज में एक प्रकार का भ्रम है कि लेखक पाठक के मुकाबले ज्यादा प्रबुद्ध होता है पर यह भ्रम मात्र है । बहुत से पाठक लेखकों के मुकाबले बहुत अधिक जानते हैं और अधिक अच्छे ढंग से अपनी बात लिख सकते हैं पर उन्हें लेखन को होल टाइम वर्क के रूप में स्वीकार करने में आपत्ति होती है क्योंकि विशुद्ध लेखन के बल पर परिवार चलाना सभी के लिये सभ्भव नहीं है । अपवाद हैं पर उन अपवादों से यही नियम सिद्ध होता है कि आजीविका के लिये कोई ऐसा काम कर लेना चाहिये जिससे एक निश्चित आय होती रहे । लिखना भी एक प्रकार से मानसिक तनाव से मुक्त होना है । और जब अधिक तनाव हो जाय तो यदा -कदा लिखने का अभ्यास कर लेना चाहिये । श्रेष्ठ लेखक या श्रेष्ठ वक्ता होना काफी कुछ प्रकृति दत्त प्रतिभा पर निर्भर होता है । अभ्यास से इसे थोड़ा -बहुत संवारा -सुधारा जा सकता है । यह बात सभी कलाओं और सभी हुन्नरों पर लागू होती है । अधिकाँश लड़के क्रिकेट खेल लेते हैं पर राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचना कुछ विरलों को ही नसीब होता है । विश्वविद्द्यालय के लाखों ग्रेजुएट्स में 10 -20 को ही मेरिट पर स्थान मिलता है । हजारों -हजार आदमी शतरंज खेलते हैं पर विश्वनाथन और कार्लसन बनना विरलों के नसीब में ही है । दुनिया के हर क्षेत्र में ,हर हुनर में ,हर कला में ,हर तकनीक में हजारों पायदान हैं । ऊँचे पायदानों पर पहुँचाना बहुत कठिन है ।
सभी प्रयास सफल नहीं होते इसलिये जीविका के लिये हमें कुछ ऐसे हुनर सीखने चाहिये जो जमीनी स्तर पर हमारे लिये रोटी -सब्जी का जुगाड़ करते रहें । नाई ,दर्जी ,धोबी ,मोची ,राजमिस्त्री ,प्लम्बर ,टिम्बर ,लघुकार ,कास्तकार आदि ऐसे हुनर है जो साधारण जन को रोटी मुहैया कराते हैं । सामजिक सोच में अपंगता आ जाने के कारण इन हुन्नरों को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाती जो गायन ,नर्तन ,अभिनय और खेलों के विविध रूपों को । हमें किसी भी काम को हेठी की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये । ईमानदारी और निष्ठा से किया हुआ प्रत्येक कार्य पूजा जैसा ही पवित्र होता है । हर कला या हुनर के दो पक्ष होते हैं ,एक समाज हितकारी ,एक समाज अहितकारी ।
शब्दों का इस्तेमाल भी इन्हीं दो विभाजन खण्डों से घेरा जा सकता है । अनावश्यक मत बोलिये पर यदि आपके पास मौलिक चिन्तना है तो अवश्य बोलिये । लिखने के लिये मत लिखिये पर यदि आपके पास औरों से कुछ बेहतर ढंग से लिखने को है तो अवश्य लिखिये । अरे भाई !हमें गजानन माधौ मुक्ति बोध की इन पंक्तियों को सदा ध्यान रखना चाहिये । "जो कुछ है उससे कुछ बेहतर होना चाहिये ,हम सबको थोड़ा बहुत मेहतर होना चाहिये । "
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