Monday, 30 May 2016

चिन्ता दोपहरी

                     
जब कभी सृजन के गीत पिरोने बैठा हूँ
जब कभी तूलिका से आकाश उतार है
सौ धूमकेतु घिर -घिर आये हैं आँखों में
हर बार  तड़प कर  गीत गद्द्य से हारा है ।
जब -जब गुलाब की कलम लगाने बैठा हूँ
बन्ध्या  युग -धरती प्रश्न चिंन्ह बन आयी है
जब मलय-बयार  चली है मन की दुनिया में
चिन्ता दोपहरी तप्त वगूला लायी है
जब कभी भाव की टेक उभर कर आती है
 मन  की चट्टानें ही सीमा बन जाती हैं
कुछ सरस पनपने से पहले मन -आँगन में
 शंका की काली छायायें  तन जाती हैं
यह साँझ- सुबह का अन्तहीन अविनाशी क्रम
'माटी 'की धरती को प्राणों से प्यारा है
जब कभी सृजन के गीत ...........
काली रातों को अँधियारे में बार -बार
द्युतिमान पिण्ड रह -रह कर राह दिखाते हैं
अभिभूत नहीं होना मावस की छाहों में
कुछ ऐसा ही सन्देश गगन से लाते हैं
हर बार अषाढ़ी मेघों के पंखों पर चढ़
चाहा विस्तार गगन का मुझको मिल जाये
जो विश्व -भावना दबी पडी मन ऊसर में
रस की छीटें पा विहँस मुक्त हो खिल जायें
मैं एक नवल संसार बसा दूँ धरती पर
जिसमें न घुटन हो छुद्र न मानव -पीड़ा हो
जिसमें न देह का दर्शन निगले प्राणों को
जीवन निसर्ग की निश्चछल मादक क्रीड़ा  हो
पर मेरे मन का श्रष्टिकार निष्क्रिय हो बैठा बात ग्रस्त
यह छुधा घुटन का विश्व अभी वैसा सारा का सारा है
जब कभी सृजन के गीत पिरोने बैठा हूँ ।
मेरी नाजुक  कल्पना सितारों से इठलाती रही सदा
धरती की जलती राह न वह चल पायी है
समता की दुनिया सजा -सजा कर सपनों में
अपने को ही बस  आज तलक छल पायी है
अन्याय ,अन्धेरा पाप पल रहा राहों पर
उनसे भगकर कल्पना कहाँ तक जायेगी
टकरा कर क्षितिज किनारों से असहाय विवश
आखिर 'माटी ' की ठोस धरा पर आयेगी
उठने को आकुल नयी श्रष्टि का हर अँकुर
रौंदते पगों की निठुर चाप से हारा है
जब कभी सृजन के गीत पिरोने बैठा हूँ .... 


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