Wednesday, 4 May 2016

                                     ............................. आज के इस निराशा ,संत्राष और आत्मजड़ता से भरे तुमुल कोलाहल के बीच रहकर भी प्रत्येक जिज्ञासु को  ज्ञान सागर में गोता लगाकर सच्चे मोती खोजने होंगें । हठधर्मिता या जेहादी जनून किसी भी काल में भारतीय संस्कृति का अपरिहार्य अंग नहीं रहा है ,हम हर युग और हर काल में विशुद्ध बुद्धि की कसौटी पर कसने के पश्चात   ही मूल्यों और समाज रचना की संहिताओं को स्वीकार करते रहे हैं । ऐसा ही हमें आज भी करना है । दरअसल जनूनीपन कुछ धर्मों का ही अंग  नहीं है यह आज विज्ञान कहे जाने वाले आधुनिक धर्म प्रवंचना का भी अंग बन गया है । विज्ञान का कोई भी सकारात्मक अनुयायी इस बात की हठ नहीं करेगा कि जो कुछ उसने जाना है वही अन्तिम सत्य है । ईजाक न्यूटन के काल में सर्वमान्य वैज्ञानिक मान्यतायें आइन्सटाइन के युग तक पहुँच कर अपनी सार्थिकता से वंचित हो गयीं । और अब तो प्रकृति की रहस्यमयी प्रक्रिया को सुलझाने का दावा करने वाले नोबेल लारियेट भेी नेति -नेति की पुकार लगाने लगे हैं । क्लोनिंग की समस्यायें और अल्पकालीन जिजीविषा उभर कर सामने  चुकी है ।
                            जैविक गुण सूत्रों का सूक्ष्म विश्लेषण नयी मीमांसाओं की माँग कर रहा है । बौनी मानव बुद्धि ब्रम्हाण्ड के अपार विस्तार में उलझ कर दिशाहीन सी हो गयी  है । प्रोफ़ेसर हॉकिन्स ब्लैक होल की थियरी लेकर रहस्य व्याख्या का प्रयत्न कर रहे हैं जब कि आकाश गंगाओं का उत्फूर्जन और विकरण किसी भी नियम संहिता को चुनौती दे रहा है । सत्य अभी बहुत दूर है और सत्य को क्या कोई मरणशील शरीर में  पलती चक्षु  बिन्दुओं से देख सकने की क्षमता रखता है । ज्ञान -विज्ञान का अहंकार कुछ राष्ट्रों को इतना निरंकुश बना चुका है कि वे संसार को एक ठोकर मारने वाला खिलौना समझ बैठे हैं । उनका दम्भ है कि वे मानव मात्र के नियामक हैं और वे मानव संतति को अपनी इच्छा के अनुसार आरोपित जीवन पद्धतियों में बाँध देंगें । भारत यह अहंकार न जाने कितनी बार देख चुका है और अभिमान से भरी न जाने कितनी संस्कृतियों को रेत के विशाल विस्तारों में बदलता देख चुका है ॥ केवल मानव संस्कृति ही नहीं देव संस्कृति भी अहंकार के इस विस्फोट से कितनी बार निर्मूल हो चुकी है । तभी तो महाकवि प्रसाद ने कामायनी में मनु से यह विचार व्यक्त करवाये हैं ।
                             "देव न वे थे ,देव न हम हैं
                              सब परिवर्तन के पुतले
                               हाँ कि गर्व रथ में तुरंग सा
                                जो चाहे जितना जुत ले ।"
               तो मित्रो ,हमें दम्भ नहीं सकारात्मक आत्मगौरव से प्राणशक्ति लेनी होगी । पाश्चात्य जीवन पद्धति को सर्वोत्तम मान कर अपनी जीवन पद्धति को हीन भाव से देखना दासत्व की पहली पहचान है । भारत भारती की जिस पंक्ति ने स्वतंत्रता संग्राम के निर्णायक क्षणों में राष्ट्र में प्राण फूंके थे वह शक्ति आज फिर और अधिक सार्थक हो उठी है । ' हम कौन थे ,क्या हो गये ,सोचो विचारों तो सही ।" "माटी " का प्रकाशन भारतीय अस्मिता की अमर गौरव गाथा को हर हाट  बाट में प्रसारित करने का रचनात्मक प्रयास है  । हम चाहेंगें कि संसार से आती हुयी हवाओं की ताजगी हम अवश्य लें ताकि हममें और अधिक स्वस्थ रक्त का संचरण हो सके पर स्वांस प्रक्रिया का संयंत्र तो हमारी अपनी स्वस्थ देह में ही परिपुष्टता पा सकेगा । अंधी गुलामी मानसिक वैश्या वृत्ति है और नयी पीढ़ी को हम  इस ओर नहीं बढ़ने देंगें । महान उपलब्धियां सहज और सीमित प्रयासों को भक्ति और तत्परता के साथ निरन्तरता देने से आती है । अपने सीमित साधनों लेकिन अपार विश्वास का बल लेकर' माटी' इस दिशा में सक्रिय  है । पाश्चात्य जीवन में भी काफी कुछ ऐसा है जो यदि अनुकरणीय नहीं तो ग्रहणीय तो अवश्य कहा जा सकता है पर निराशा की बात तो ये  है कि जीवन्त स्पन्दनों को छोड़कर मृत औपचारिकताओं के पीछे दौड़ना हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता बनती जा रही है । इसमें बहुत कुछ दोष हमारी शिक्षा पद्धति का रहा है । मानव विकास की भ्रामक धारणायें फैलाना और प्रजातीय विशेषताओं की विरुदावली गाना साम्राज्यवादी व्यवस्था का एक संयोजित संयंत्र रहा है । भारत विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति का प्रतीक होने के नाते इस संयंत्र का और उसके परिणाम स्वरूप देशीय संस्कृति के अधिपतन का विशेष लक्ष्य बनता रहा है । स्वतन्त्रता के पश्चात भी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का हे राम ,और वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर परायी जाने रे को भुला कर हम भ्रामक मार्क्सवादी भूल भुलैयों में फंस गये । फलस्वरूप भारत का इतिहास हमारे राष्ट्रीय पुरुषों के उपहास का कारण बन गया । हमारी सर्वसहिष्णु धार्मिक परम्परायें और हमारी मूल राष्ट्रधर्मिता ठिठौली भरी वाग्मिता के घेरे में फंस गयी । लगभग पाँच दशकों तक ऐतिहासिकता के नाम पर जो कुछ पढ़ाया गया वह मात्र एक आरोपित और विकृत साम्यवादी दर्शन का आरोपित रूप था । अयोध्या नगरी और मथुरा नगरी की ईशापूर्व  अस्तित्व सम्भावनाओं और प्रस्तार सम्भावनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाये गये । मानव श्रष्टि के सर्वोत्तम विकास सम्भावनाओं से परिपूर्ण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और निष्काम कर्म अमर विचारक वशीधर श्री कृष्ण के अस्तित्व पर बचकानी टिप्पणियां लिखी गयीं । एक क्षण को भी इन छद्म इतिहासकारों ने यह नहीं सोचा कि वे मात्र तत्कालीन शासन से झूठी प्रंशसा और झूठी कागजी मुद्रा पाने के लिये राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं । ऐसे ही कपूतों ने परतन्त्रता के लम्बे काल प्रस्तार में माँ भारती का मुँह काला किया है । प्रभात की नयी बयार चल निकली है अन्धकार की अभेद्य चादर भेदकर रश्मि रथ पर सवार राष्ट्रीय चेतना का भाष्कर गतिमान हो चुका है । "माटी " का सम्पादक मण्डल इस दिशा में अग्रगामी पहल करेगा और असत्य के अम्बारों को अग्नि समर्पित करके उसकी भष्म से नयी  मान्यताओं का संवर्धन  ,संपोषण करेगा । हम चाहते हैं कि प्रत्येक पाठक यह मानकर चले कि अपने और अपने परिवार  के प्रति उसका उत्तरदायित्व तभी पूरा माना जायेगा जब वह राष्ट्रीय चेतना के लिये निरन्तर समर्पित रहेगा और यदि आवश्यकता पड़े तो महत्तर हितों के लिये लघुत्तर हितों का परित्याग करेगा । ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य के विचारकों ,कवियों और सृजनकारों ने भारतीय दर्शन को सदैव ही हींन  भाव से देखा हो । कवि वर्डसवर्थ जब यह लिखता है -
" Trailing clouds of glory do we come from God
  That is our home or our birth is but a sleep and a forgetting ."
                                तो वह भारतीय दर्शन को ही अंग्रेजी स्वरों में ढाल रहा है या आधुनिक काल में जब T.S.Eliot यह लिखते हैं "I have measured my life in coffee spoons." तो वे एक तरीके से भारतीय दर्शन में अन्तर्निहित जीवन की उच्च्तर भावभूमि की तलाश की ही बात करते हैं । अमेरिकन  Emerson और Thorean  तो भारतीय दर्शन से अनुप्राणित ही हैं इतना होने पर भी अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान रखने वाला सामान्य भारतवासी भी विकलांग शिक्षा के कारण पाश्चात्य जीवन पद्धति अपनाने की गुलामी लेकर बड़ा होता है । उसे नहीं बताया जाता कि हम पहिनाव -उढ़ाव ,खान -पान ,स्वागत -समारोह ,या अन्य सांसारिक रीतिरिवाजों के न जाने कितने विविधता भरे मार्गों से गुजर चुके हैं । हम कितनी बार कंठ लंगोट लगा चुके हैं ,कितनी बार सुथ्थ्न पहिं चुके हैं ,और कितनी बार सुरा -सुन्दरी का अप्रतिबन्धित जीवन दर्शन जी चुके हैं । इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो भारत नहीं जानता और सच पूँछो तो यह भारत का फेंका हुआ जीर्ण -शीर्ण आवरण तन्त्र या केंचुल है जो दुनिया आभूषण समझ कर पहिन रही है । हाँ कुछ  है ऐसा जो भारत का ,भारतीय दर्शन का ,भारतीय आचार संहिता का और भारतीय अस्मिता का प्राण तत्व है और जिसे संसार के कुछ अत्यन्त विशिष्ट आत्म संपन्न व्यक्ति ही समझ पाये हैं । यह है भारत की जल में पलकर भी कमल जैसी निर्लिप्त रहने की क्षमता । यह है भारत की निष्काम समर्पण भावना - "त्वमैव वस्तु गोविन्दम तुभ्य मेव समर्पये ।"
                           ' माटी " किसी भी  एकांगी दर्शन में विश्वास नहीं करती । एक समन्वित जीवन पद्धति ,अनेकान्त दर्शन से अनुप्रेरित जीवन दृष्टि और ब्रम्हाण्डीय विस्तार की प्राणवत्ता उसका आधार है । हर धर्म के मूल में मानव कल्याण की भावना सन्निहित है ।"सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।" सुदूर अतीत से गूँजकर आता यह स्वर हमें झकझोर देता है ,अनुप्रेरित करता है और प्राणवान बनाता है । "तमसो मा ज्योतिर्गमय ,मृत्यो मां अमृतम गमयेत ।"
               आइये महाकवि मिल्टन के इन शब्दों के साथ हम अपनी बात समाप्त करें ।
                     " Illumine what is dark in me ,raise and support to the height of that argument so that I may justify the ways of God to man ."
                  "माटी ' संस्कृति उत्थान  के इस श्रम साध्य मार्ग पर चल निकली है । हम आपके सहयोग की आकांक्षा करते हैं और महाकवि गुरु रवीन्द्र का यह अमर  सन्देश हमारे पास है -" यदि तोर डाक सुने ,केऊ न आसे तबे तुम इकला चलो ,इकला चलो, इकला चलो  रे ।"पर हम हिन्दुस्तानी में भी विश्वास करते हैं क्योकि भारतवासी होकर भी आखिर हम हिन्दुस्तान ही तो हैं । तो आइये इस चिरपरिचित शेर को एक बार फिर दुहरावें -" हम अकेले ही चले थे जानिबे मन्जिल मगर , हमसफ़र मिलते गये और कारवाँ बनता गया ।" (क्रमशः )

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