Sunday, 2 August 2015

सीटी दे रहा घास का टिड्डा 

नई तकनीक से निर्मित धमन भट्टी 
स्वतः चलित जड़न पट्टा नये तकुये 
नई -धुरियाँ, नयी ज्यामित कसीदे की मिया गिरी 
जगरमग चौंध देती है कला की कर्मशाला 
मगर भयभीत स्वर में है निदेशक कक्ष में चर्चा 
कि कच्चा माल चुकता जा रहा है । 
धरा की गोद में खोजो खनिज फिर कवि 
तलाशो फिर नयी माटी ,
कि केवल चाक का बदलाव ही काफी नहीं है । 
कि बन्धन मुक्त छोड़ो मन विहग को 
अात्म रति के मिथक माया जाल से 
उठाओ माल फिर कच्चा ,खरा सच्चा 
गली के छोर से ,चौपाल से । 
कला बस चाक -चिक्कण ही नहीं है ,
सांस का सरगम उसे मानों 
कि हर जन में कहीं 
जन से बड़ा जो जन उसे जानों । 
सुनों जो गीत गाती ग्राम्य -बालायें समूहों में
 पढ़ो, इतिहास  जो अन्तर्निहित है ग्राम्य ढूहों में 
चलो खुरपी उठा काढें कि खर -पतवार खेतों का 
लगायें अंकुरित नव -पौध में पानी ,
ठिठक कर मत खड़े हो मित्र ,
आओ साथ दें 
पलवा उठानें में तनिक तो हाँथ दें 
इस रेत में ही नहर है लानी 
चलो इस पंडुरी का गीत तो सुन लें
 कि सुग्गे की सजीली चोंच से 
क्षत -विक्षत 
कँपता बेर का यह फल 
कला की दीर्घा में कल सजाने को
 नयी तस्वीर तो चुन लें । 
पुलकती पीड़की के फुरफुराते पंख तो देखो 
चहकती झूम गौरय्या सखा का प्यार पाने को 
कि पीले पंख खोले घूमती है बर्र की माला 
कि सीटी दे रहा है घास का टिड्डा मंगेतर के बुलाने को । 
कि नाते यह नये सिर से जगाने हैं 
चकित हो नित्य नवला प्रकृति के फिर गीत गाने हैं 
कि गोबर से ,धुएं से ,धूल  से ,भगना नहेीं अच्छा 
कि सागर नीर से ही क्षीर ले अंकुएं उगाने  हैं 
सितारों से भरा नभ 
अब धरा का ही पड़ोसी है 
कि कंलगी बाजरे से ही 
कला की ताज पोशी है । 
गगन भर गोद में बादल 
कि झुकता जा रहा है 
करो अब बन्द यह फुसफुस 
'कि कच्चा माल चुकता जा रहा है '
सहज विश्वास  पालो 
फिर सृजन का युग 
धरा पर आ रहा है । 

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