Thursday, 30 July 2015

हमारे सत्य के अतिरिक्त भी सच है

मैं हिमालय सा अटल
नम- शयनिका पर काल -कीलित ध्रुव कला हूँ
सोचता था
एक हल्की कालिमा जब नाक के नीचे लगी थी खेलनें।
मनुजता के मूल्य मेरे पैर के घुँघरू बनेंगें
और गुरु की खोज में सब भटकते जाबाल
चिन्तन -स्फुलिंग ले
बन वैनली आग ,स्वाहा कर सकेंगें झूठ ,खर ,पतवार
धरती राख से सोना जनेगी -सोचता था ।
गगन चूनर ओढ़ वर्तुल नृत्य में डूबी धरित्री
खिलखिला हँसती रही इस चिन्तना पर
 बढ़ गई परछाइयाँ जब दोपहर ढलने लगी ।
सोचता तब भी रहा पर
बीज उगनें में समय कुछ लग गया है
कोख में जो शक्ति का शुभ संपुजन है
समय पाकर कल्प तरु बन कर जनेगा ।
किन्तु गहरे कहीं भीतर वह तरुण विश्वाश
घुट -घुट मर रहा था ,हर गली हर मोड़ पर
आदर्श की लाशें पडी थीं
कीट कृमि जिन पर लगे थे रेंगनें ।
तर्क अपनें आप को देता रहा
लचक ही तो उर्ध्वगामी शान्ति का अंदाज है
मूल्यहीन नहीं हुयी है यह धरा
वायु अब तक सांस लेने योग्य है ।
सत्य मृग -छौने भरेगें फिर कुलांचें सोचता था ।
थिरकनें कुछ और देकर झूम में झूमी धरा
छाँह लम्बी और लम्बी हो गयी
शुभ्र वर्णी धूप पाण्डुर रूप के
द्वार पर वार्धक्य के हँसनें  लगी ।
गांधी, नेहरू महज इतिहास बन कर रह गये ।
सोचता हूँ ,आज मैं
अटलता की बात कोरा दंभ्भ  है
सत्य युग से अलग हटकर
अहं का विस्फोट है
शब्द की हर धार
जो अवसाद का तम चीरती है
मृत्यु- गामी युग व्यवस्था पर
करारी चोट है ।
चल रहा है जो  नहीं वह हीन है
चुक  चुका जो न बहुत महान था
साज का सरगम सदा यों ही बजा है
भिन्नता का बोध सीमित ज्ञान था ।
इसलिये अब मानता हूँ
नये युग के फिर नये आदर्श उभरेंगें
नये परिवेश संवरेंगें
नयी युग चेतना के प्रति
दुरा -ग्रह मुक्त होना है
हमारे सत्य के अतिरिक्त भी सच है
समय -सापेक्ष शाश्वत है
हमें इस बोध से फिर मुक्त होना है ।




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