Thursday, 23 July 2015

                                          आस्तिक दर्शन

             फ्रांस के किसी दार्शनिक लेखक नें भारत की औपनिषदिक विशेषताओं का उल्लेख करते हुए एक मनोरंजक कहानी का हवाला दिया है । वह लिखता है कि उसे काशी का एक चिन्तनशील ब्राम्हण मिला जिसनें बातो ही बातों में उससे कहा कि यदि वह इस धरती पर जन्म न लेता तो कितना अच्छा होता । फ्रेन्च दार्शनिक नें पूंछा ,"ऐसा क्यों "?ब्राम्हण नें उत्तर दिया कि वह पिछले चालीस वर्षों से शास्त्रों का अध्ययन कर रहा है । वह जानता है कि उसकी नर काया भौतिक तत्वों से बनी है पर उसे यह समझ में नहीं आता कि ये भौतिक तत्व किस प्रकार उसके मन में विचारों का सृजन करते हैं । उसनें आगे कहा मुझे इतना भी ज्ञान नहीं है कि जिस सहज भाव से मैं चल लेता हूँ या जिस आमाशयी प्रक्रिया से मेरा खाना हजम होता है ठीक वैसी ही कोई समझ में आ जाने वाली प्रक्रिया  मेरी विचारधारा को संचालित करती है । जिस तरीके से मैं अपनें हाथ से कोई वस्तु सहज भाव से उठा लेता हूँ क्या उसी प्रकार मेरा मस्तिष्क भी सहज भाव से किसी विचार को पकड़ लेता है । मैं मस्तिष्क की गहराईयों पर बड़े -बड़े व्याख्यान देता हूँ और सुननें वाले भले ही प्रभावित हो जाय पर बोल लेनें के बाद  मैं स्वयं ही भ्रमित हो जाता हूँ और मुझे अपनें कहे हुए पर शर्म आने लगती है । अब भला मैं  मन की शान्ति कहाँ से पाऊँ । काश इस धरती पर मेरा जन्म न होता ।
                                                फ्रेन्च दार्शनिक नें आगे लिखा है कि उसी दिन उसनें उस चिंन्तनशील ब्राम्हण से करीब 50 गज की दूरी पर एक घर में रहने वाली माथे पर तिलक लगाये एक नारी से बात की । दार्शनिक नें उससे पूछा क्या कभी उसनें यह सोचा है कि उसकी आत्मा क्या उन्हीं तत्वों से बनी है जिनसे उनका शरीर । दार्शनिक लिखता है कि उस स्त्री नें उसके प्रश्न को समझ ही नहीं पाया। उस स्त्री नें अपनें सारे जीवन में इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया था । वे प्रश्न जो चिन्तनशील ब्राम्हण को 40 वर्षों से तंग कर रहे थे उस स्त्री के लिये बेमानी थे । वह  तो भगवान विष्णु के 10 अवतारों में विश्वास  रखती थी और अाचमन के लिये यदि उसे थोड़ा सा गंगाजल हथेली पर मिल जाय तो वह अपने को संसार की सबसे सुखी स्त्री समझती थी । इस नारी से मुलाक़ात करने के बाद फ्रेन्च दार्शनिक लौटकर फिर उस चिन्तन शील ब्राम्हण के पास गया बोला "पंडित जी आप से 50 गज की दूरी पर जो तिलक धारी स्त्री रहती है उसने अपने को कभी भी मैटर और सोल के प्रश्नों पर नहीं उलझाया । वह कितनी संतुष्ट और सुखी जीवन जी रही है और एक आप हैं जो व्यर्थ की मानसिक अशान्ति मोल ले रहे हैं ।
                                                       चिन्तनशील ब्राम्हण नें कहा ," फिरंगी दार्शनिक आप ठीक कहते हैं हजारों बार मैंने सोचा है कि मैं भी वैसा ही प्रसन्न रहूँ जैसी वह तिलक धारी नारी देह । पर तब मुझे ऐसा लगा है कि  मुझे वैसा ही मूर्ख भी होना होगा । मैं इतनी  बड़ी मूर्खता मोल लेकर प्रसन्नता की गोद में नहीं जाना चाहता । मानसिक चिन्तन से उत्पन्न अशान्ति ही मेरा आभूषण है । ब्राम्हण अस्मिता की यह पहचान है । फ्रांस के उस दार्शनिक नें  लिखा है कि चिन्तनशील ब्राम्ह्ण के इस उत्तर नें उसे एक ऐसी दिब्य आन्तरिक द्रष्टि प्रदान की जो उसे किन्ही पश्चिमी धर्म ग्रन्थों में नहीं मिल पायी थी ।
                                                   तो मस्तिष्क में जिज्ञासाओं का जन्म और उनके संतोषजनक उत्तर पाने के प्रयास सभ्य मानव  की विरासत हैं । इनसे मुक्ति पाने अर्थ है पशुओं जैसा सहज दिखने वाला अज्ञान भरा जीवन । चिन्ता नहीं करनी है पर चिन्तन अवश्य करना है गूढ़ से गूढ़तम ,सूक्ष्म से सूक्ष्मतम चिन्तन की प्रक्रिया मस्तिष्क के अपार अपरचित विस्तार से न जाने  कितनें मणि -माणिक खोजकर ले आंती  है । सर्वविदित है कि हर काया समान नहीं होती ठीक वैसे ही हर मस्तिष्क समान नहीं होता । पर जिस प्रकार मानव काया की संरचना के कुछ सामान्य नियम हैं वैसे ही मस्तिष्क के संरचना के भी कुछ सामान्य आधार मिल सकते हैं । मानव काया पर भी लाखों वर्षों के विकास क्रम की लुप्त प्राय छापें देखी जा सकती हैं । उसी प्रकार मानव मस्तिष्क में भी लाखों वर्षो से चिन्तन विकास को निरन्तरता के सूत्र तलाशे जा सकते हैं । शक्ति सत्ता और सुख उपभोग के अनेकानेक प्रयोगों के बाद अब मानव जाति डिमोक्रेसी के विश्वव्यापी प्रयोग को अपनाने की ओर अग्रसर है । हजारों वर्ष पहले यह प्रयोग छोटे स्तर पर सीमित क्षेत्रों में किये गए थे तब उनके रूप में आज जैसी समरसता नहीं थी पर मूल रूप से वे जनतान्त्रिक प्रयोग ही थे । आज का विश्व घूम फिर कर उन प्रयोगों को परिवर्धित ,परिपोषित कर समस्त विश्व में लागू करना चाह रहा है । इस दिशा में आधुनिक मानव सभ्यता नें निश्चय ही आश्चर्य जनक उपलब्धियां प्राप्त की हैं । योरोपियन और अमेरिकन डिमोक्रेसीज तो सफल प्रयोग हैं हीं भारत का 68 वर्ष पुराना जनतान्त्रिक प्रयोग भी काफी कुछ सफल माना जा सकता है । यद्यपि उसके कुछ दुर्बल पक्ष भी उभर कर आये हैं । गहन चिन्तन के द्वारा ही इन दुर्बलताओं का निराकरण किया जा सकता हैं । अज्ञानी तिलकधारी पुजारिन की भाँति इस भ्रम में डूबे रहना कि जो व्यवस्था चल रही है वही ठीक है हमें लक्षित ऊँचाइयों तक नहेीं पहुँचा सकती ।
                                                      श्रष्टि में कितनी विभिन्नता है यह हम सभी जानते हैं । इसे श्रष्टि  कार का  कौशल कहें या प्रकृति का रहस्यात्मक खेल कि जंगम श्रष्टि  में जीवन सघर्ष  का निर्दयी खूनी खेल प्रत्येक क्षण अनवरत गति से चलता रहता है । धरती ,समुद्र और आकाश सभी जगह कोई जीवन किसी जीवन का भक्षण कर रहा है और स्वयं किसी अन्य का भक्ष्य बन रहा है । मानव सभ्यता नें ही इस दिशा में कुछ प्रतिबन्ध लगा सकनें में कुछ   सफलता पायी है ।  चार्वाक नें तो कहा ही था कि " मैं आकाश में पतंग ,धरती पर चारपाई और समुद्र में जलतरी को छोड़ कर सभी कुछ खा सकता हूँ । "उसनें भी विद्वान दार्शनिक होने के नाते ,धरती पर मनुष्य के खाने की बात नहीं कही पर अब तो आज मानव मानव को खा रहा है । याद कीजिये निठारी के उस राज कुमार कोली को जो बच्चों को फुसलाकर उन्हें मारकर पका कर उनका मांस खाया करता था और जिसनें एक नारी को भोगकर उसे पका कर खा डाला । खैर तो छोडिये मनुष्य के रूप में इस घिनौनें पशु का स्मरण और आइये हम जंगल में डिमोक्रेसी के सम्बन्ध में एक कहानी  विचार करें ।
                                        कहते हैं मानव नें अपनी प्रारम्भिक अवस्था में जब जंगलों को काटना प्रारम्भ किया और जंगल में रहनें वाले प्राणियों को अपनी हिँसा भरी भूख का शिकार बनाया तो जंगल के जानवरों नें सामूहिक रूप  मानव के हिंसक प्रयासों को रोकनें  लिए एक विचार मंच आयोजित किया । आखिर आदमी भी  तो मिल जुल कर कबीलाई भाई चारे के डोरों से बँधकर जंगल पर जंगल विजय पाते जा रहे थे । उन दिनों बहुत विशाल जंगल रहते रहे होंगें । साफ़ सुथरी भूमि तो बहुत ही कम रही होगी पर प्रारम्भिक आदि मानव के हाथ में जब कुल्हाड़ा आ गया तो जंगल पर जंगल साफ़ होने लगे । घने जंगल के बीच जानवरों की सभा में गजराज को प्रधान चुनकर सभा आयोजित हुयी । श्रगाल राज नें यह प्रस्ताव रखा कि जंगल सभी का है और सभी को इसमें रहने का बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए । लोमड़ मामा नें भी इसका समर्थन किया ।  खरगोशों  के सरदार नें अपनी पतली आवाज की सीटी बजाते हुये यह बताया कि छोटे बड़े सभी बराबर हैं कुदरत नें हम सबको बनाया है । आखिर आदमियों की कौम में भी तो कोई लंबा है तो कोई नाटा ,कोई बहुत मोटा  है तो कोई सींकिया है ,कोई काला है तो कोई गेहुंआ है । कोई ललौंछ है तो कोई पीताभ है । कुछ लोगों के बाल हमारे पूँछ के नोक जैसे घुंघराले हैं और कुछ के ऐसे लम्बे जैसे सिंह महराज के अयाल । खरगोश की इस बात की बहुत सराहना हुयी और सभी सभा में उपस्थित वन्य प्राणियों नें ताली बजाकर इन बातों का अनुमोदन किया । ताली बजाते समय जब सिंह राज नें अपनें पंजे को देखा तो उसके मन में एक विचार कौंध गया । उसनें गजराज से कुछ कहनें की अनुमति माँगी । गजराज नें उनका उठा हुआ पंजा देख लिया था और उन्हें अनुमति  तो दो देनी ही थी । सिंह  राज नें कहा राजा खरगोश की बात बहुत पायेदार है  सभी कुछ पंजों पर ही खड़ा होता है । पँचायत का मतलब ही है पंजों का बोलबाला । मैं खरगोश राज से कहूँगा कि वे अपना पंजा दिखावें । मैं आप सबको अपना पंजा दिखाता हूँ यह कहकर सिंह राज दहाड़े और जंगली जानवरों की पँचायत एक दूसरे को कुचलती हुयी भाग खड़ी हुयी । क्या पता शायद इसी कहानी के बल पर भारतीेय जनतन्त्र में किसी राजनैतिक पार्टीे नें पंजे को अपना निशान बना लिया है । सिंह राज की बात आ गयी तो बहुत पहले का एक चुनावी नारा दिमाग में कौंध गया । नारे को कृपया किसी राजनैतिक प्रचार से जोड़कर न   देखें । उसके शब्दों की संगीतमयता और उसके अर्थ की गहनता की ओर ध्यान दें ।
'  एक शेरनी सौ  लंगूर ,चिक मगलूर -चिक मंगलूर , चलिये छोड़िये इन हल्की -फुल्की बातों को । मिल -जुल कर थोड़ा कुछ गहन चिन्तन कर लें  आखिर सकारात्मक चिन्तन ही तो किसी समस्या के समाधान की ओर ले जाता है ।
                      आज हमारी जम्हूरियत कई मायनों में एक लचड -पचङ क़ानून की व्यवस्था ही कही जा  सकती है हर एक वयस्क नर -नारी को बोट का अधिकार है यह हमारी जम्हूरियत का सबसे सबल पक्ष है पर अँध विश्वास ,अशिक्षा ,घोर गरीबी और गर्दन तोड़ महगाई झेलनें वाला भारत का लगभग  दो तिहाई जन समुदाय यूनिवर्सल फ्रेंचाइजी के अधिकार  को एक छलावे भरी चाल से अधिक कुछ नहीं मानता । और है भी तो यह एक छलावा ही । सपनों की सौदागिरी । जाति -पाँति का मिथकीय ,लुभावनी तकनीकी प्रगति का मायाजाल । क्षेत्रीय पहचानों का महाकाव्यीय विस्तार । यही कारण है कि आजादी के संग्राम के महानायकों के महाप्रयाण के बाद सारा भारत क्षेत्रीय भूखण्डों में बटकर जीवन और मरण के बीच पड़ा है अपंग होकर भी वह जीवित है और जिजीविषा लेकर भी वह मरणोन्मुख है । भिन्न -भिन्न राज्यों की गलियों ,मुहल्लों और  प्रखण्डों में घूम -फिर कर मुश्किल से हमें कुछ ही भारतीय या हिंदुस्तानी मिल पाते हैं । हम तिलंग हैं ,हम मराठे हैं ,हम बंगाली हैं ,हम पंजाबी हैं ,हम कश्मीरी हैं ,हम बुन्देलखण्डी हैं ,हम झारखंडी हैं ,हम उड़िया हैं ,हम असमिया हैं पर शायद हम सच्चे अर्थों में हिन्दुस्तानी नहीं । हम जाट हैं ,हम अहीर हैं ,हम गूजर हैं ,हम जाटव हैं, हम राजपूत हैं ,हम जांगण हैं, हम राँगण हैं ,हम मुखर्जी हैं ,हम मिश्रा हैं ,  हम शेख हैं ,हम सैय्यद हैं ,हम कुंजड़ा हैं ,हम चिकवा हैं पर शायद ही हम हिन्दुस्तानी हैं । और तो और अगर हम हिन्दुस्तानी हैं तो क्या हम भारतीय भी हैं और अगर हम भारतीय भी हैं तो क्या हम हिन्दुस्तानी भी हैं ?
                                                        मदर मैरी को साड़ी पहनाकर गोद में शिशु लेकर जाते हुए दिखाने  पर भी क्या वे भारतीयों की श्रद्धा पा सकेंगीं ?मसीह की सेवा में निरत न जाने कितनें पादरी स्वयं ही इस प्रकार के परिवर्तन का विरोध करते दिखयी पड़ रहे हैं । स्पष्ट है कि भारतीय जनतन्त्र सच्चे अर्थों में भारतीय जनता को अपनें पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं कर सका है । भारत का सर्वोच्च न्यायालय तो यहां तक कह चुका है कि शायद भगवान भी इस देश में उचित न्याय व्यवस्था लागू नहीं कर पायेंगें ।
(क्रमशः ....)


































































































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