कुँम्भकरण
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
हर भेद -भाव हर ऊँच -नीच
उठ जाय देश की धरती से
सोने की फ़सलें उमग उठें
हर बंजर से हर परती से
जो जाति -पाँति शोषक -शोषित
की भेद भरी दीवारें हैं
भाई -भाई को मिटा रहीं
जो जहर भरी फुँकारे हैं
इन फुँकारों का मारक विष
जिससे दूषित जल वायु हुयी -मिट जाय देश की धरती से
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
राजाओं का यह ताम -झाम हाथी हौदे
भिक्षुणियों के हाथों में भिक्षा की प्याली
मजबूर किशोरी की आँखों में दया भीख
लोलुप हिँसक के आँखों में मद की लाली
बाजार भोग का सात -समन्दर पार बसा
स्वीकृत के बन्धन बिना लटकती दोनाली
जनमत की छाती पर होकर बेडर सवार
दे रहे प्रगति की प्रतिगामी मोहरें गाली
यह मुर्दा घर से आने वाली आवाजें
हर बढ़ता कदम अँधेरे में जो खीँच रही ,मिट जाय देश की धरती से
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
ये गली -गली में अस्मत के होते सौदे
चेहरे की कीमत जहाँ लगायी जाती है
हिन्दू ,मुस्लिम ,ईसाई के सब भेद- छोड़
तन बेच -बेच कर रोटी खायी जाती है
जो रहे नोचते अपनी बहू बेटियों को
फिर वही दरिन्दे नंगा खेल दिखाते हैं
मजहब खतरे में 'धर्म ' गया चिल्ला -चिल्ला
इतिहासों के काले पन्नें लिखवाते हैं
फिर से न अहमदाबाद जले ,शैतानों के यह विष लपटें
बुझ जाये देश की धरती से
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
हर बार फसल कटनें पर कीमत का गिरना
सोनें की काली ईंटों की करतूत रही
दो मास बाद छू लेते मूल्य सितारों को
है यही व्यवस्था सदा देश में पूत रही
श्रम से सहेज सम्पदा उठ रहे स्वर्ण सौंध
श्रमिकों के सर पर छत न अभी पड़ पायी है
सीमा पर दो बार उठी तलवार मगर
अब तक न देश की ग़ुरबत से लड़ पायी है
मन्त्री के स्वागत में आयोजित महा- भोज
पर जुटनें वाली जूठन -भोगी करुण -पंक्ति
मिट जाय देश की धरती से
क्या सच -मुच चाह रहे साथी ?
मन प्राणों से फिर शपथ उठाओ अभी आज
तज कर सत्ता के सेज धरा पर सोऊँगा
टोली बाजी को छोड़ उठूँगा निजता से
जन - जन के मन में प्यार बीज मैं बोऊँगा
जो काले धन से चमक रहे थूकों उनपर
बस खून पसीनें की ही एक कमाई है
मेहनत की रोटी भली पाप की रबड़ी से
सन्देश यही तो आजादी ले आयी है
सिर तान न चल पावें व्यभिचारी कामचोर
क्षण भर में सब कुछ खाने वाला कुम्भकरण
उठ जाय देश की धरती से
क्या सच -मुच चाह रहे साथी ?
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