Monday, 22 July 2013

सागर के पार ........

                                     मोक्ष ,निर्वाण ,कैवल्य या दिव्य  समाधि की धार्मिक -दार्शनिक धारणायें जीवन सम्पूर्णता को पाने का श्रेष्ठतम मानव प्रयास ही है। पूर्णत्व की संकल्पना विभिन्न सन्दर्भों में परिवर्तन के माध्यम से गुजरती रहती है। श्रष्टि संचालन की पीछे छिपी किसी दिब्य और रहस्यात्मक शक्ति की अवधारणा नें मनुष्य को उत्कर्ष के ऊर्ध्वगामी पथ पर संचालित कर पूर्णत्व प्राप्ति के लिये प्रेरित किया है। ऊँचाई की ओर ले जाने वाला यह मार्ग सराहनीय और चुनौती भरा तो है पर इसमें मानव अन्तर्मन में रमण कर अद्दभुत आनन्द पाने के सुअवसर भी प्राप्त होते हैं । शब्द को ब्रम्ह इसीलिये कहा गया है क्योंकि सार्थक पुकार पर ही परम प्रकृति अपना आश्रय देने के लिये प्रेरित होती है। इसीलिये प्राणवान शब्द शिल्पी स्वयं में किसी दिव्य रहस्य की सम्भावना छिपाये रहता है। वेद  मन्त्र , ऋषियों की ऋचाएँ और मुनियों के मन्त्र शब्द साधना के वे उच्च्तर सोपान हैं जिन पर चढ़ कर मानव मन प्रकृति नियमन के पीछे छिपे गूढ़ रहस्यों का आभास पा जाता है। हम सभी जानते हैं कि जो जन्मा है वह जायेगा ही पर जाने का भय यदि निरन्तर मानव को ग्रसता रहे तो वह अकर्मण्यता की गोद में जा बैठता है।  इसीलिये मृत से अमृत की और जाने की प्रार्थना करते हैं।म्रत्यु के भय को भूल जाना म्रत्यु पर विजय पाना है । भय जब पैनिक विचार बन जाता है तो हाँथ -पाँव फुला देता है । और बुद्धि बौनी हो जाती है । इसीलिये म्रत्यु का भय शब्द ब्रम्ह की अमृत साधना के द्वारा सकारात्मक रूप ले लेता है और अपने जीवन काल में कुछ ऐसा करने के लिये प्रेरित करता है जो म्रत्युन्जय हो। काल के कपाल पर अकाल लेख लिखने की शक्ति जिन महापुरुषों में होती है वे ही म्रत्यु की सर्वजयी  विजय यात्रा को चुनौती दे पाते हैं। माटी इसी अमरत्व की भावना का प्रतीक है। वह सनातन है ,शाश्वत है ,कालजयी है और निरन्तरता का अमिट सूत्र है। कुम्भकार आते हैं , माटी को रचते , संवारते हैं। और पात्रों ,घटों तक स्रंगारिकाओं का संयोजन करते हैं। पर घट , पात्र ,खिलौने और प्रतिकृतियाँ विनिष्ट हो जाती हैं पर माटी तो केवल रूप बदलती है। और इस द्रष्टि से आत्मा के अमरत्व का प्रतीक है। संभवत : कबीर के इस दोहे में सामान्य अर्थ के अतिरिक्त एक रहस्य पूर्ण अर्थ भी निहित है। " माटी कहै कुम्हार से ,तू रौंदत है मोंहि , इक दिन ऐसा आयेगा , मैं रौंदूगी तोहि।" पर इन असंख्य कुम्भकारों में कुछ ऐसे शिल्पी भी हैं जिनके हाँथों में पड़कर माटी फूली नहीं समाती उन्हें वह रौंदती नहीं बल्कि चन्दन बन कर सुशोभित करती है और मानव इतिहास में उनकी विरासत को युगों -युगों तक पूज्य बना देती है। कब और कहाँ , कैसे और किस प्रक्रिया से ज्ञान -विज्ञान के क्षेत्र में कोई युगान्तकारी प्रतिभा उभर आयेगी इसका उत्तर न तो अभी ज्योतिष दे पायी है और न ही विश्व की कोई दार्शनिक व्याख्या। यह अद्दभुत रहस्य ही तो मानव जाति को और सम्भवत : प्रत्येक संकल्पित परिवार को उत्कर्षता की ओर प्रेरित कर संघर्ष रत रखता है। कौन जाने कब कुल परम्परा में कोई भगीरथ आ जाय।
                                ये सच है कि  जन्मजात प्रतिभा पर रहस्यमय आवरण पडा रहता है पर यह भी सच है कि जन्मजात  प्रतिभा को परिमार्जित कर  निखारने का प्रयास न किया जाय तो उसे उन ऊँचाइयों तक नहीं पहुचाया जा सकता जिसकी संभावनायें उसमें छिपी होती हैं।साहित्य के क्षेत्र में या यों कह लें कि ललित कलाओं के क्षेत्र में शिक्षणऔर परिमार्जन एक प्रासंगिक आवश्यकता ही बन पाते हैं पर विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में उनकी सार्वभौम सार्थकता से इन्कार नहीं किया जा सकता | और हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि विज्ञान , नाभिकीय  , गणित और रहस्य भेदक तकनीक भी परम सत्य को पाने का प्रयास ही है | यही कारण है कि विश्व के सभी सभ्यदेश शिक्षाकी गुणवत्ता के प्रति अत्यन्त सचेत रहते हैं | प्राचीन भारत में उपनिषद काल में हम इस विशेषता का आश्चर्य जनक प्रसार और परिणाम देख पाते हैं |  यही कारण है कि उस काल में उस समय के जाने गये ज्ञान -विज्ञान आयामों में भारत नें अपना अद्वितीय स्थान बनाया था फिर दिब्य ऊँचाइयों से फिसलन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुयी और कुछ छोटे -मोटे काल के लिये किसी असाधारण व्यक्तित्व के आ जाने के कारण कुछ ठहराव भले ही दिखायी पड़ा हो पर  आखिरकार  यह फिसलन हमें तलहटी तक ले आयी |  पुनर्निर्माण  और पुनर्जागरण की नयी श्रष्टि का आधार श्रेष्ठ शिक्षा का ढांचा ही  प्रदान कर सकता है | स्वतन्त्रता के प्रारम्भ  के दिनों में एक दो प्रतिशत उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीय अपने को मात्र पाश्चात्य मूल्यों से ही मापते रहे |  महात्मा गाँधीके प्रभाव नें उन्हें थोड़ा बहुत देश की माटी के नजदीक खीँचकर खड़ा किया पर गाँधी जी के महानिर्वाण के बाद हम फिर कृत्रिम सुगन्धों में साँस लेने के आदी हो गये|  तकनीकी ज्ञान , प्रद्योगकीय, नाभिकीय , प्रसारकीय और जैवकीय इन सभी क्षेत्रों में हमें भारत की उर्वरा धरती से जीवन्त तत्वों को लेकर उन्हें भारतीयता  से महिमा मंडित करना है |  ज्ञान -विज्ञान की यह बहुमुखी विपुल -रूपा  शाखायें हमारी अपनी माटी में जड़ें जमाकर जीवन रस पायें और हमारी अपनी समस्याओं का निदान करें यह हमारा प्रयास होना चाहिए |  यदि भारत का पाश्चात्यीकरण का हमें जीवन मूल्यों और संस्कारों से दूर हटाता है तो हमें उस पाश्चात्यीकरण का भारतीयकरण करना होगा |  यह एक अत्यन्तदुष्कर कार्य है | हमें इसके लिये गोपाल कृष्ण गोखले , रवीन्द्र नाथ , जगदीश चन्द्र वसु , सी .वी. रमन ,और अब्दुल कलाम जैसे अद्दभुत प्रतिभा और व्यक्तित्व सम्पन्न श्रेष्ठ पुरुषों की आवश्यकता है | भारतीय संस्कृति यह मानती है कि प्रभु कृपा के बिना सारे प्रयास प्रत्यासित सफलता तक नहीं पहुँचते इसीलिये माटी प्रकृति के नियन्ता शक्तियों के प्रति नत -मस्तक होकर इस प्रयास में रत है कि वह श्रेष्ठता के परिवर्धन , संशोधन में एक उत्तरदायी भूमिका निभा सके | न तो मानव पूर्ण है और  न मानव के प्रयास पर अपनी अपूर्णता में ही पूर्णता के प्रति प्रयासरत रहना जीवन्त संस्कृति का लक्ष्य होता है |  पाठकों , रचनाकारों और आलोचकों का त्रिकोणीय सहयोग ही माटी को एक ज्यामितीय आकार प्रदान कर सकेगा ऐसा मेरा विश्वास है |
                      माटी के पिछले अंक मे भी असावधानी के कारण प्रूफ की काफी कुछ गल्तियाँ रह गयी हैं | सीमित साधनों के कारण उचित समय पर शब्द सामर्थ्य के धनी विश्लेषकों के अभाव में ऐसी गल्तियाँ रह जाती हैं | हमें कुछ समय और दीजिये -हो सकता है हम उस स्तर को छू लें जहाँ आप जैसे प्रबुद्ध पाठक सहज भाव से हमें नयी चेतना के संवाहक के रूप में स्वीकार कर सकें |  तब तक के लिये नीचे लिखी काब्य पंक्तियाँ  आपको शायद कुछ सांत्वना दे सकें ……
                           " सागर के पार द्वार ले जाने का उदार उद्यम ही हमारा है
                             उसके पार जो कुछ है -स्वर्ण -जुही है , भोर का तारा है
                             सब कुछ तुम्हारा है , मेरे प्रिय , सब कुछ तुम्हारा है | "
                                                                                                           " अज्ञेय "

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