मंच के धुर मध्य बैठे तुम प्रतिष्ठा पा रहे हो
पर न कहना चाह कर भी कह रहा हूँ
जब कभी मिल कर प्रतिष्ठित व्यक्तियों से लौटता हूँ
तो
अशुचिता की वास नासा रन्ध्र मेरे छेदती है।
लिजलिजे स्पर्श का आभाष
मेरी चेतना को संक्रमित कर
ऊर्ध्वगामी वृत्तियों को रौंदता है।
इसलिये मैंने चुना है साथ
तरु की छांह में सुस्ता रहे गोपाल का
ताकि , उसके साथ में भी आंक लूं मनचित्र
सामने के झिलमिलाते ताल का
धो सके जो अशुचिता स्पर्श जिसे
अगुआ बने जन नें दिया है।
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