Wednesday, 19 June 2013

सायं दर्शन

सायं दर्शन

अस्तंगत रवि ,धूमिल मग लौटे नभ चारी
रजत रेख ,हिम श्वेत वेष चलने की वारी
सप्त दशक उड़ गये काल के पंख लगाये
कौन अपरिचित किस सुदूर से मुझे बुलाये
ठहरो हे अनजान , अभी जग प्यारा लगता
पार्थिव बोध सभी बोधों से न्यारा लगता
काम कल्पना अभी न तन की
त्याग वृत्ति से हारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलने की वारी
रूप -रंग की सतरंगी चूनर का जात्य सुहाना
ठिठक किशोरी के द्वारे पर नव यौवन का आना
खिलते फूल लहरते आँचल अभी उमँग उकसाते
 प्रिय -वियोग स्मृति में रह रह नयन आद्र हो जाते
मिलन विरह की याद जगाती अब तक किरन कुँवारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलने की वारी
भव  वारिधि में तरिणि चलाना अब तक मन को भाता
अभी मोक्ष के दिवा -स्वप्न से जुड़ा न अपना नाता
तरुण कल्पना वर्ष भार से हुयी न अब तक वृद्धा
अभी धरित्री की साँसों में पलती मेरी श्रद्धा
पी जीवन विष भी मेरा शिव बन न सका संहारी ....
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलने की वारी
चंचल चपल उर्मियों में मन लहर -लहर लहराता
जीर्ण वस्त्र हो तो क्या तन का मन से ही तो नाता
बहु चर्चित जो दिव्य- सनातन तन से अलग कहाँ है
पगली राधा वहीं मिलेगी छलिया कृष्ण जहाँ है
सार -भस्म  पा दीप्ति रसायन बनी स्वर्ण चिनगारी
रजत रेख हिम श्वेत वेश चलने की वारी
हाड़ मांस के इस जीवन से प्यार न अब तक छूटा
टूटी ज्ञान कमान राग का तार न अब तक टूटा
व्यर्थ नहीं वार्धक्य सांध्य -सुषमा की छटा निराली
न्योछावर हो जाती इस पर तरुण रक्त की लाली
मुक्ति नटी बांहों में बांधे घूमें मदन मदारी
रजत रेख हिम श्वेत वेष चलने की वारी ।


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