Monday, 22 April 2013

समानान्तर कथा जाल (गतांक से आगे )

                                           समानान्तर कथा जाल (गतांक से आगे )
             
                    ,,,उसे विश्वास  था कि उसके निश्च्छल व वफादारी के उच्चतम आदर्श पर राजा (राजकुमार ) को कोई शक नहीं होगा। पर नियति के खेल को कौन जानता है । उल्लू जोड़े की सारी बातें आदर्श सखा लक्ष्मण नें पेंड़ की छाल काट कर बनाये गये एक पट्ट पर लिख लीं अन्त में उसमें   लिख दिया कि यदि उस पर राजा को कोई सन्देह हो जाता है तो काल के अधिष्ठाता नरसिंह उसे तुरन्त पथ्थर की मूर्ति में बदल दें। यदि विश्व की पवित्र शक्तियां उसे पथ्थर में नहीं बदलती तो पवित्र भावनाओं का सदैव के लिये अन्त हो जायेगा।

            सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा उल्लू जोड़े के बीच बातचीत में बताया गया था। लक्ष्मण ने वट  वृक्ष की डाल  गिरने से पहले ही अपनी शक्ति के बल पर रास्ते से अलग खींच कर खड़ा कर दिया और उसे दूसरे मार्ग से खींच कर फिर राह पर ले आया। मेहराब के नीचे से गुजरते हुये रथ पर जब मेहराब गिरने को हुई तो उसने घोड़े पर खड़े होकर अपने हाँथों से मेहराब को तब तक गिरने से रोके रखा जब तक उनका रथ मेहराब के नीचे से निकल नहीं गया और अब तीसरे खतरे की बारी आ गयी। फूलों से सजे सुवासित शयन कक्ष में राजा और रानी के मिलन की अविस्मर्णीय रात। स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति फिर गहरी निद्रा में स्वप्न संचरण। नियति के प्रतीक के रूप में नागराज का आना फन  उत्तोलन और कटार  से  उनका विखन्डीकरण। सभी कुछ उल्लू युग्म ने देख लिया था। अब अपने वस्त्र के नीचे से पेंड़ की छाल की पट्टिका पर लिखी गोलाकार आकृति में लिपटी पाती आदर्श लक्ष्मण नें अपने वस्त्र के नीचे से निकाली और उसे राजकुमार के सिरहाने रख दिया आदर्श लक्ष्मण जानता था कि आगे जो होगा वह नियति के हाँथ में है। उसने रेशम की झीनी पट्टिका राजकुमारी के मत्थे पर डाली। विष मिला रक्त पट्टिका के ऊपर उभर कर आ गया। उसे जिव्हाग्र से चाट कर जैसे ही उसने सिर उठाया उसने देखा कि राजा (राजकुमार ) जाग गये हैं राजकुमार की आँखों में विस्मय के साथ सन्देह भी था और थी एक भर्त्सना जो लक्ष्मण के ह्रदय को शूल के तरीके से भेद गयी। उसने आँखें बंद कीं और काल पुरुष नरसिंह का स्मरण किया। क्षण मात्र में ही वह खड़ा -खड़ा पत्थर  की मूर्ति में बदल गया। लक्ष्मण के चरित्र पर सन्देह करने वाला राजकुमार जिसे राम राजा कहकर पुकार सकते हैं। अपने  मुँह को दोनों हांथों से ढके सोच में पड़ा था , वह सोच रहा था क्या लक्ष्मण भी वासना के दलदल में फँसकर मित्र घात कर सकता है। उसने कुछ प्रश्न आँखें खोलकर लक्ष्मण की ओर फेंकें पर कोई उत्तर न मिला यह क्या लक्ष्मण तो हिलता -डुलता ही नहीं। राम राजा उठे राजकुमारी को उठाया रानी और राजा दोनों नें हाँथ का स्पर्श करके पाया कि वहाँ लक्ष्मण नहीं बल्कि लक्ष्मण की प्रस्तर मूर्ति खडी है। अचानक राम राजा की निगाहें सिरहाने के पास रखी पाती पर पड़ी। राजा और रानी दोनों नें ही उल्लू युग्म द्वारा दिये गये खतरे की पूर्व सूचना और उनके निवारण के लिये लक्ष्मण द्वारा किये प्रयत्नों की जानकारी पायी। सब कुछ जानकर राजकुमार और राजकुमारी फूट -फूटकर रो पड़े। हे श्रष्टि के नियन्ता यह हमनें क्या कर डाला हमें पाप मुक्ति दो युगों -युगों तक लक्ष्मण की पवित्रता व वफादारी घर -घर में चर्चा का विषय रहेगी पर युगों -युगों तक मुझे प्रायश्चित्त की अग्नि में जलना पड़ेगा। प्रस्तर की मूर्ति केचरणों के  पास बैठकर राज कुमार और राजकुमारी नें प्रार्थना की मित्र लक्ष्मण मुझे नर्क की व्यथा से उबार लो। मेरे क्षणिक सन्देह को युगों -युगों के पश्चाताप में मत बदलो कुछ अवधि तो निश्चित करो। हे मित्र ,हे सखा ,हे बन्धु मुझे मुक्ति का मार्ग तो दिखाओ। आश्चर्यों का आश्चर्य तब हुआ जब मूर्ति नें पलकें हिलायीं और एक गहरा गड़गड़ाता स्वर निकला जैसे नरसिंह की दहाड़ हो राजन जब आपके और राजकुमारी के संयोग से पहली सन्तान का जन्म होगा और जब वह घुटनों से चलकर मेरा पहला स्पर्श करेगी तब मैं अपनी नर आकृति पा जऊँगा। इसमें कितना समय लगेगा यह नियति का विधान है और फिर वह दैवी वाणी सपाट सन्नाटे में बदल गयी।

              अब यह पाठकों के  हाथ में है कि प्रस्तर मूर्ति लक्ष्मण को कब नर काया में बदल दें दरअसल यह उनके हाथ में नहीं उनकी परिवार योजना की परिधि में आने वाला विचारणीय प्रश्न है। नव दम्पतियों के अलग -अलग उत्तर हो सकते है।  लेखक तो राम राजा और लक्ष्मण सखा की दक्षिण भारतीय कहानी में दिये गये काल प्रसार को ही आप तक पहुँचा कर आपसे आज्ञां लेना चाहेगा।

                    आठ वर्ष गुजर गये और तब हँसता मुस्कराता स्वर्ग प्रसून सा एक शिशु रानी की गोद में आया। अभी कुछ समय सीमा और बाकी थी। कुछ पखवारे और कुछ मॉस और बीते और फिर उस शयन कक्ष में घुटनों के बल चलकर आनन्द की किलकारी गूँज उठने लगी और एक दिन जब राजा और रानी उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो उस दिब्य शिशु में न जाने कहाँ की शक्ति आ गयी। किलकारी मारता हुआ वह घुटनों के बल तेजी से चल पड़ा और उसने प्रस्तर मूर्ति के चरणों पर अपने दोनों हाँथों से स्पर्श किया। एक अद्दभुत घटना घटी मूर्ति की पलकें हिलीं और क्षण के सतांश में प्रस्तर मूर्ति नर काया में बदल गयी। रक्त स्पन्दन प्रारम्भ हुआ। मूर्ति नें झुक कर शिशु को हाँथो में  उठाया और उसके दिब्य मस्तक पर एक अमिट चुम्बन की छाप लगा दी। आप सब जानना चाहेंगे कि फेथफुल जान की जर्मन कहानी में क्या कुछ ऐसा ही घटित होता है जैसा दक्षिणावर्त की भारतीय कहानी में , दोनों सभ्यताओं के अन्तर और समानता की चर्चा हम आप तक फिर कभी पहुँचायेंगे। आप चाहें तो दक्षिण के इन लक्ष्मण को लक्ष्मण रेखा से भी जोड़कर देख सकते हैं। 

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