गोरी न्याय व्यवस्था का मिथक
कई वयोवृद्ध लोगों को यह कहते हुये सुना जाता है कि अंग्रेजी राज्य में न्याय की व्यवस्था आज की व्यवस्था के मुकाबले में कहीं अधिक बेहतर थी। उनका कहना है कि उस समय न्यायपालिका के ऊँचे पदों पर अंग्रेज जज ही विराजमान होते थे और वे अपने निर्णय में सदैव निष्पक्ष रहते थे। इसका कारण यह था कि वे हिन्दुस्तान में फ़ैली जाति -पांति ,क्षेत्र ,धर्म और भाई बिरादरी की संकीर्ण व्यवस्थाओं से मुक्त थे। वयोवृद्ध लोगों की इन बातों में काफी कुछ सच्चाई हो सकती है पर मुझे कुछ ऐसे प्रसंगों का भी स्मरण आता है जहां अंग्रेज न्यायाधीशों की निर्णय प्रक्रिया निरर्थक तथा हास्यास्पद कारणों से सुनिश्चित होती थी। १९१२ में कानपुर में एडीशनल सेशन्स जज के पद पर नियुक्त जैकब हार्डेन द्वारा लिखे गये हिदुस्तानी अनुभवों की एक अजीब कहानी मुझे पढ़ने को मिली, जैकब साहब ने लिखा है कि हिन्दुस्तानी वकील उनके सामने टूटी -फूटी अंग्रेजी में जो तर्क रखते थे उनका अधिकाँश उनकी समझ के बाहर होता था। वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों की दलीलें उनके लिये बेमानी होती थीं। उन दिनों भारत वर्ष में या कम से कम कानपुर में बिजली की व्यवस्था नहीं थी और लकड़ी के कुन्दे में पंखा बाँध कर पंखा हिलाने वाले मजदूर उन्हें राहत पहुचाते थे। मई की उमस भरी दोपहरियाँ उन्हें बेचैन कर देती थीं। पंखा हिलाते -हिलाते यदि किसी मजदूर के हाँथ रुक जाते तो उनके अर्दली का चाबुक उसकी नंगी पीठ पर अपनी पीड़ा भरी छाप छोड़ देता था। दो -दो मजदूर दो -दो घंटे की बारी से जब तक जज साहब अपनी कुर्सी पर रहते पंखा चलाया करते थे। ठंडे देश के निवासी जैकब गर्मी की भयंकरता से अपना मानसिक संतुलन खो बैठते थे। वकीलों की ओर टेढ़ी निगाह से देखकर उन्हें वे अपनी बात जल्दी समाप्त करने का एहसास कराते। चूँकि दोनों पक्षों की दलीलें और हिन्दुस्तानी सन्दर्भ की प्रष्ठ भूमि उनकी समझ से बाहर थी इसलिये उन्हें फैसला देने के लिये कोई और उपाय खोजना पड़ता था उन्होंने अपनी पुस्तक "Memories of Judicial of English officer " में लिखा है कि कई बार वे पंखे के लकड़ी के कुंन्दे पर जो कि कमरे में होरीजेंटल रूप से टंगा था उस पर बैठी हुई मख्खियों को गिन लेते थे उनकी दाँयीं ओर वादी होता था और बाँयी ओर प्रतिवादी वे दायीं और बाँयीं दोनों सिरों पर बैठी हुई मख्खियों की गिनती करते। दायीं ओर मख्खियों की गिनती करके २ से भाग देते फिर बायीं ओर की मख्खियों की गिनती करके २ से भाग देते। जिस ओर की मख्खियों की संख्या २ से विभाजित हो जाती उसी के पक्ष में वे फैसला लिख देते थे कई बार दोनों ओर की मख्खियों की संख्या २ से कट जाती थी तब वे अगली तारीख पर फैसला सुनाने की बात कहते और उस दिन भी मख्खियों की गिनती की यह प्रक्रिया निर्णय के लिये कारगर साबित होती। जैकब साहब ने लिखा है कि हिन्दुस्तानियों ने उनके हर निर्णय को सराहा और उनकी तुलना किसी विक्रमादित्य से की जो न्याय के लिये बहुत प्रसिद्ध था। ऐसा लगता है कि सैकड़ों वर्षों से पीड़ित , प्रताड़ित सामान्य भारतीय जन मानस दासता के बन्धनों में अपने स्वाभिमान को पूर्णत : विस्मृत कर चुका था । ( आगे अगले अंक में )
कई वयोवृद्ध लोगों को यह कहते हुये सुना जाता है कि अंग्रेजी राज्य में न्याय की व्यवस्था आज की व्यवस्था के मुकाबले में कहीं अधिक बेहतर थी। उनका कहना है कि उस समय न्यायपालिका के ऊँचे पदों पर अंग्रेज जज ही विराजमान होते थे और वे अपने निर्णय में सदैव निष्पक्ष रहते थे। इसका कारण यह था कि वे हिन्दुस्तान में फ़ैली जाति -पांति ,क्षेत्र ,धर्म और भाई बिरादरी की संकीर्ण व्यवस्थाओं से मुक्त थे। वयोवृद्ध लोगों की इन बातों में काफी कुछ सच्चाई हो सकती है पर मुझे कुछ ऐसे प्रसंगों का भी स्मरण आता है जहां अंग्रेज न्यायाधीशों की निर्णय प्रक्रिया निरर्थक तथा हास्यास्पद कारणों से सुनिश्चित होती थी। १९१२ में कानपुर में एडीशनल सेशन्स जज के पद पर नियुक्त जैकब हार्डेन द्वारा लिखे गये हिदुस्तानी अनुभवों की एक अजीब कहानी मुझे पढ़ने को मिली, जैकब साहब ने लिखा है कि हिन्दुस्तानी वकील उनके सामने टूटी -फूटी अंग्रेजी में जो तर्क रखते थे उनका अधिकाँश उनकी समझ के बाहर होता था। वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों की दलीलें उनके लिये बेमानी होती थीं। उन दिनों भारत वर्ष में या कम से कम कानपुर में बिजली की व्यवस्था नहीं थी और लकड़ी के कुन्दे में पंखा बाँध कर पंखा हिलाने वाले मजदूर उन्हें राहत पहुचाते थे। मई की उमस भरी दोपहरियाँ उन्हें बेचैन कर देती थीं। पंखा हिलाते -हिलाते यदि किसी मजदूर के हाँथ रुक जाते तो उनके अर्दली का चाबुक उसकी नंगी पीठ पर अपनी पीड़ा भरी छाप छोड़ देता था। दो -दो मजदूर दो -दो घंटे की बारी से जब तक जज साहब अपनी कुर्सी पर रहते पंखा चलाया करते थे। ठंडे देश के निवासी जैकब गर्मी की भयंकरता से अपना मानसिक संतुलन खो बैठते थे। वकीलों की ओर टेढ़ी निगाह से देखकर उन्हें वे अपनी बात जल्दी समाप्त करने का एहसास कराते। चूँकि दोनों पक्षों की दलीलें और हिन्दुस्तानी सन्दर्भ की प्रष्ठ भूमि उनकी समझ से बाहर थी इसलिये उन्हें फैसला देने के लिये कोई और उपाय खोजना पड़ता था उन्होंने अपनी पुस्तक "Memories of Judicial of English officer " में लिखा है कि कई बार वे पंखे के लकड़ी के कुंन्दे पर जो कि कमरे में होरीजेंटल रूप से टंगा था उस पर बैठी हुई मख्खियों को गिन लेते थे उनकी दाँयीं ओर वादी होता था और बाँयी ओर प्रतिवादी वे दायीं और बाँयीं दोनों सिरों पर बैठी हुई मख्खियों की गिनती करते। दायीं ओर मख्खियों की गिनती करके २ से भाग देते फिर बायीं ओर की मख्खियों की गिनती करके २ से भाग देते। जिस ओर की मख्खियों की संख्या २ से विभाजित हो जाती उसी के पक्ष में वे फैसला लिख देते थे कई बार दोनों ओर की मख्खियों की संख्या २ से कट जाती थी तब वे अगली तारीख पर फैसला सुनाने की बात कहते और उस दिन भी मख्खियों की गिनती की यह प्रक्रिया निर्णय के लिये कारगर साबित होती। जैकब साहब ने लिखा है कि हिन्दुस्तानियों ने उनके हर निर्णय को सराहा और उनकी तुलना किसी विक्रमादित्य से की जो न्याय के लिये बहुत प्रसिद्ध था। ऐसा लगता है कि सैकड़ों वर्षों से पीड़ित , प्रताड़ित सामान्य भारतीय जन मानस दासता के बन्धनों में अपने स्वाभिमान को पूर्णत : विस्मृत कर चुका था । ( आगे अगले अंक में )
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