Sunday, 21 April 2013

नचिकेता धर्मराज की ड्योढ़ी पर (गतांक से आगे |

                                          नचिकेता धर्मराज की ड्योढ़ी पर (गतांक से आगे )

यमराज :- देखो वत्स ,मैं तुम्हारे समक्ष बैठा हूँ मेरा वाह्य शरीर तुम्हारे सामने है। यदि मैं साधारण मनुष्य होता और मै मृत्यु को प्राप्त होता तो मेरा यह शरीर तुम्हारे सामने ऐसे ही उपस्थित रहता पर इसकी चेतना लुप्त हो जाती। अब यदि चेतना जिसे हम आत्मा य परम तत्त्व का अणु अंश कहते हैं उसकी अपनी अलग सत्ता न होती तो शरीर निर्जीव कैसे होता ?जो ऐसा नहीं मानते उन्होंने सत्य को जाना ही नहीं है। देखो नचिकेता ,न तो तुम हाँथ हो, न आँख ,न मुख , न कान। त्वचा से ढका तुम्हारा यह अस्थियों का ढाँचा तो मात्र इस लिये खड़ा किया गया है कि इसमें परम हंस का निवास हो। यह प्रश्न अत्यंत गूढ है और इनके शाब्दिक उत्तर तब तक मन को नहीं छूते जब तक अपने अनुभव से सिद्ध पुरुषों के साथ रहकर कोई यह जान नहीं लेता कि आत्मा शारीरिक सुख -दुःख से ऊपर चिर आनन्द के सिंहासन पर बैठी है। नचिकेता जो कुछ भी इस संसार में हो रहा है अपने सतत कार्यक्रम के अनुसार होता है । मानव जाति का यह झूठा अंहकार कि उसके द्वारा विश्व के कार्य कलाप संचालित किये जा रहें हैं एक सुहावने  भ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। नचिकेता जन्म और मृत्यु ,मिलन और वियोग ,श्रष्टि और विनाश ,सभी कुछ श्रष्टा की माया के बदलते हुये परिद्रश्य हैं । एक पटाक्षेप के बाद दूसरा द्रश्य और फिर दूसरे के बाद तीसरा इस प्रकार अनगिनत काल तक अनिगिनत द्रश्य चलते रहते हैं। जो आत्मा के अमरत्व में स्थिर हो जाता है उसके लिये इन द्रश्यों का कोई महत्त्व नहीं है।

नचिकेता :- प्रभु संसार में इतना वैभिन्य है और घटनाओं का इतना आश्चर्य जनक अम्बार है कि यह मानना कठिन हो जाता है कि यह सब माया के लुभावने रूप ही हैं। भिन्नता की अपनी भी तो कोई सच्चायी होनी चाहिये।

धर्मराज :- देखो नचिकेता जैसे पहाड़ी की चोटी पर गिरता हुआ पानी न जाने कितनी धारायें बन कर भिन्न -भिन्न रास्तों से तलहटी की ओर दौड़ने लगता है। वैसे ही लीलाधर एक ही केन्द्र से जगत के समस्त मायाजाल को संचालित कर रहा है। अज्ञानी अलग -अलग बहती हुई धाराओं के अलग -अलग नाम देते हैं। और उन्हें अलग -अलग ढंग से परिभाषित करते हैं। पर जल तो जल ही है बूँद हो या समुद्र ,नदी हो या नाला .झरना हो या उत्स सभी में जल है। जल जल में मिलकर जल ही हो जाता है। अमर प्रकाश का जो अंश मानव देह में है वह वह यदि साधना के ऊर्ध्वगामी शक्ति से अनुचालित हो तो अनन्त प्रकाश पुंज में मिल जाने की क्षमता रखता है। अन्य चेतन देहों में भी अमरत्व की हल्की -फुल्की झाईं होती है। पर उसे सशक्त होने के लिये न जाने कितने जन्मों के बाद और कितनी योनियों में परिभ्रमण के बाद मानव काया में पहुचने का सुअवसर प्राप्त होता है।

नचिकेता :- भगवन ,क्या हमारे भीतर आत्मा स्वयं प्रकाशमान है या उसे और कहीं से प्रकाश पाने की आवश्यकता होती  है। अमरत्व का जो केंद्र बिन्दु मानव काया में निहित है क्या उसे और कहीं से प्रकाश मिलता है। क्या सूर्य ,चन्द्र या तार मंडल उसे प्रकाश देते हैं। क्या मेघों में कौंधती बिजली से उसे प्रकाश मिलता है या ऋषियों की यज्ञ की अग्नि से आत्मा प्रकाशवान होती है।

यमराज :- नचिकेता तुमने एक अत्यन्त महत्त्व पूर्ण प्रश्न पूछा है। यह प्रश्न इतना गूढ़ है कि इसके उत्तर खोजने के लिये मुझे स्वयं दयानिधि के द्वार पर जाना पड़ा था और जानते हो उन्होंने क्या कहा ?उन्होंने कहा हे धर्मराज आप यमराज भी हैं। मृत्यु आपकी मुठ्ठी में है पर जीवन आपकी मुठ्ठी में नहीं है फिर उन्होंने आगे कहा सच मानना मृत्यु राज श्रष्टि की सृजन प्रक्रिया जब प्रारम्भ हो कर रही है गयी इसके बाद मैं भी इसका कर्ता नहीं रहा। आदि कारण तो मैं हूँ पर अब श्रष्टि स्वयं सन्चालित है। विज्ञान उसे प्रकृति का अनवरत प्रभाव कहता है। दर्शन उसे माया की मंचीय अवधारणा बताता है पर एक तटस्थ दर्शक और विवेचक की भांति मैं उस सबको अब एक अनियन्त्रित और अलक्षित लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ चेतन प्रवाह ही मानता हूँ। मैं स्वयं नहीं जानता कि मेरे भीतर वह कौन सी बाध्यता थी जिसने मुझे जड़ से चेतन की उत्पत्ति की ओर उन्मुख कर दिया। मुझे लगने लगा है कि मैं स्वयं माया के आत्मजाल में तो नहीं फसता जा रहा हूँ।
हाँ तो तुमने पूछा था मनुष्य में निहित अमरत्व का प्रकाश कहाँ से आता है तो सुनो वह अमर तत्व स्वयं प्रकाशित है और उसके प्रकाश का प्रतिबिम्ब ही ब्रम्हाण्ड की सारी ज्योतित गंगाओं में प्रतिबिम्बित होता है। अमरत्व का वह अंश मानव अंत:स्थल में इस प्रकार स्थित है कि उससे उठने वाली चेतन तरंगें काया के प्रत्येक रोम ,प्रत्येक छिद्र और प्रत्येक इन्द्रिय अनुभव को स्पन्दित कर रही है।  Reed Plant(नर कुल का पौधा ) को उसके पत्तों से हटाकर ही स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है इन्द्रिय तरंगों से प्रभावित ह्रदय में पड़ जाने वाली गांठें जब खुल जाती है और जब मोह का विकार मनुष्य से दूर हट जाता है तब उसकी आत्मा का प्रकाश अपनी झलक देता है और इस झलक पर यदि हम निरन्तर अपने अन्तर चक्षुओं को केन्द्रित रखें तो हमें अमरता की प्राप्ति हो सकती हैं। यह शरीर एक रथ है जिसे हमारी इन्द्रियाँ घोड़े की तरह खींच रहीं हैं। मनुष्य का मस्तिष्क उस लगाम की तरह है जो अपनी समझ के अनुसार इन घोड़ों को नियन्त्रित रखता है। आत्मा ही शरीर रथ की अन्तर वेदी पीठिका पर बैठी हुयी है। यदि मन को नियंत्रित कर हम उसे ठीक समय पर ठीक प्रकार बल्गा खीचने या ढील करने की अनुशासन प्रक्रिया से नहीं गुजरने देते तो कभी भी मनुष्य अमरत्व का आभाष नहीं कर सकेगा। शरीर रूपी यह रथ सांसारिक गलियों में चक्कर पर चक्कर खाता रहेगा और जन्म मरण की असंख्य वीथियों में और असंख्य कोटियों में भटकता फिरेगा। हे नचिकेता ,तुम अपने नाशवान शरीर में स्थित अविनाशी तत्व के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ। आत्मा न कभी जन्मती है और न कभी मरती है। वह न कहीं से आयी है और न कहीं जाकर उसे विनिष्ट होना है। नचिकेता तुम अजन्मा हो ,सदा जीवी हो शाश्वत हो और अखंडित तथा अभिभाज्य हो। उठो नचिकेता तुम्हे अब अपने पिता के पास धरती नामक गृह पर फिर से जाना है अब तो तुम अमर दर्शन का घूँट पी चुके हो। अब तुम्हें मेरे पास इसलिये नहीं आना है कि मैं तुम्हारे कर्मों का फलाफल सुनिश्चित करूँ। तुम अब संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहोगे। तुम अब देह में रहकर भी देह में नहीं रहोग। तुम अब गेह में रहकर भी गेहमें नहीं रहोगे।
           तुम अदेह हो ,अगेय हो ,अशरीरी हो ,तुम प्रकाश की एक निरन्तर दीप्तिमान लौ हो। मैं तुम्हें अपने पुत्र और शिष्य के रूप में स्वीकार करतां हूँ। अपने भौतिक पिता के पास वापस जाओ और उन्हें मोह मुक्त करो। उन्हें बताना दानी होने का सम्मान पाना भी एक लालसा है। जब उनका कुछ है ही नहीं तो दान कैसा? मुक्त जीवी के लिये तो सम्पदा का ढेर रेत के टीले से अधिक और कुछ नहीं होता। नचिकेता ये पंक्तियाँ जो आत्मा से सम्बधित हैं और जिन्हें अब तुमने जीवन में पूरी तरह उतार लिया है भारत वर्ष के घर -घर में पहुचा देना।

"न जायते म्रियतो वा विपिश्चिन
नायं कुत्शिचन्न वभूव कश्चित्।
अजो नित्य :शाश्वतोड़यं  पुराणों
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।
 (नेपथ्य में एक ऊँची ध्वनि
जय हो मृत्यु के देवता ,जै हो अमरता के सन्देश वाहक , जय हो धर्म के अधिष्ठाता ,विजयी हो भारत की आर्ष परम्परा।)
पटाक्षेप

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