ईशा से सैकड़ों वर्ष पहले यूनान में एथेन्स की सड़कों पर नंगे पाँव घूमने वाले शासन द्वारा उपेक्षित, साधन रहित दार्शनिक के शब्दों में एक ऐसा जादू था जिसने एथेन्स के अधिकाँश युवा वर्ग को अपने आकर्षण में वांध लिया था।क्रास पर लटका दिये जाने वाले ईशु के शब्दों में तो अनन्त प्रकृति का सत्यबोलता ही था अभी बीसवीं शताब्दी में भारत में आधी टांगों में धोती लपेटे और हाथ में बांस की लाठी लिये नंगे फ़कीर का करिश्मा तो सबने देखा ही है। आइये धोड़ा सा ध्यान इस ओर दें कि आज के भारत में लच्छेदार भाषणों का जादू भी सामान्य जन को क्यों अपने सम्मोहन में घेर नहीं पाता। जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका कारण यह है कि भाषा के अधिकाँश शब्द निरर्थक हो गये हैं । खोखले शब्दों में आचरण के सत्य का अभाव है।' थोथा चना बाजे घना'।ढपोल शंखी निनाद बेअसर होकर कानों के आर-पार निकल जाता है । बड़े -बड़े डिग्री धारी विदेशों से जुटायी हुई ऊंचे लफ्फाजों से अलंकृत भाषा शैली के द्वारा भारतीय समाज में संजीवनी फूकने का दावा करतें हैं। इन डिग्री धारियों में से अधिकांश भारत के ग्राम्यों की सम्रद्ध सांस्कृतिक परम्परा से बिल्कुल कटे हुये हैं। विदेशों का आरोपित ज्ञान उन्हें भारत की समावेशी अस्मिता का अन्तर अवलोकन करने से बाधित करता है। ऐसा लगता है हमारी परम्परागत भाषाएँ आज के जीवन की सच्चाई को प्रभाव शाली ढंग से व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो रही हैं। अंग्रेजी को छोड़ दें तो कुटिलता का जो मोहक व्यापार आधुनिक संसार में चल रहा है उसे व्यक्त करनें में भारतीय भाषायें तो लचर ही दिखलायी पड़ती हैं । सत्य के प्रति समर्पित समन्वयात्मक मानवता का पुजारी भारत छल -छद्म के झरोखे बनाने में पंगु होता जा रहा है ।हमें इन झरोखों की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि भारत के प्रवेश द्वार तो निरन्तर उन्मुक्त ही रहें हैं और चारो दिशाओं से आने वाली बयार हमें निरन्तर चिरन्तन सत्य की खोज की ओर प्रेरित करती रही है। 'सत्य मेव जयते '।Nothing but Truth. Truth is beauty. truth is true salvation . 'माटी 'चाहती है कि माटी के पाठक ऐसे लेखक और विचारक रचना के क्षेत्र में लाये जो शब्दों को एक नयी धार दे ,एक नयी चुभन ,एक अलबेली तराश और एक अनोखी अर्थवत्ता प्रदान करें ।हम 'माटी 'के पाठकों से संत कबीर का कोई सच्चा उत्तराधिकारी चाहते हैं हम 'माटी 'के पाठकों से उस विधि की खोज करवाना चाहते हैं जिस विधि की तलाश में मेवाड़ की मीरा भटकती रही थी। 'शूली ऊपर सेज पिया की किस विधि मिलणा होय '।आचरण के ठोस आधार पर ही शब्दों की सार्थक भित्ति खड़ी की जा सकती है । भारत का हर सामान्य जन जानता है कि गधे की पीठ पर दर्शन शास्त्रों का बोझा लाद देने से गधा दार्शनिक नहीं बन जाता ।आचरण की आग में पककर ही उपाधियों की लम्बे चोंगें वाली आतंकी वेष -भूषा की पहचान की असलियत जानी जा सकती है ।मानव समाज का आधार ही आचरण की शुद्धता पर टिका है।इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आधुनिक भारत का अधिकाँश कलुष उनके माथे पर लगा है जिनके नाम के आगे भारी भरकम डिग्रियां लगी हुई हैं। इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि डिग्रियाँ ब्यर्थ हैं। इसका सिर्फ यही अर्थ है कि कोई भी उपाधि ,कोई भी तकनीकी ज्ञान, कोई भी ब्यापारिक सूझ -बूझ यदि पशुता के धरातल पर केवल अपने स्वार्थ के लिये है तो उसमें कोई भी सामाजिक पवित्रता न के बराबर है । सभी धर्म -ग्रन्थ मानव कल्याण को ही सर्वोपरि मानते हैं । कोई भी दर्शन या कोई भी विचारधारा जो मानव को जन्म के आधार पर विभाजित करती है विश्व के हर धर्म में तिरष्कृत की गयी है । सच्चाई तो यह है कि एक चरित्रवान अपढ़ उस दिमागी दिग्गज वकील से लाख गुना बेहतर है जो झूठ के कुटिल तर्कों और साक्षों के बल पर सच करके पेश करता है ।'माटी ' का सम्पादक माटी के माध्यम से एक ऐसी संस्कारित पीढ़ी को पल्लवित करना चाहता है जो भारत की ऋषि परम्परा से आचरण की पवित्रता ले और विवेकानन्द के दर्शन से आधुनिक जीवन संघर्ष में विजयी बन कर राष्ट्रीय गॉरव को समुन्नत कर सके। चारो ओर से उमड़ कर आते हुये तमस के दौर में माटी की टिमटिमाती लव प्रकम्पित हो रही है ।हमारा प्रयास है कि हम अपने अस्तित्व की बाजी लगाकर भी इस प्रकम्पित लव को बुझने न दें। गीता का यह सार वाक्य ही हमारा सहारा है।'कर्म करना ही मानव का अधिकार है । कर्म का फल तो विधाता यानि निरन्तर परिवर्तित होने वाली सामाजिक चेतना के हाथों में ही होता है। ठीक समय आने पर परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाती हैं। और ठीक समय तभी आता है जब सामाजिक चेतना मानव जीवन के समानता वादी मानव मूल्यों को समग्र भाव से स्वीकार कर लेती है। तभी तो राम प्रसाद बिस्मिल नें आजादी के
संघर्ष के दिनों में अपनी अमर पंक्तियों से एक न बुझने वाली सर्वस्व वलिदान लौ को प्रज्वलित किया था।
"वक्त आने पर बता देंगे ऐ आसमां , हम अभी से क्या बतायें क्या हमारें मन में है ।"
' सच्चे सहयोग की पुकार के साथ '
संघर्ष के दिनों में अपनी अमर पंक्तियों से एक न बुझने वाली सर्वस्व वलिदान लौ को प्रज्वलित किया था।
"वक्त आने पर बता देंगे ऐ आसमां , हम अभी से क्या बतायें क्या हमारें मन में है ।"
' सच्चे सहयोग की पुकार के साथ '
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