सेकुलर का अर्थ कभी धर्म निरपेक्ष हुआ करता था ,अब उसे पन्थ निरपेक्ष कहकर व्याख्यायित किया जाता है। कुछ प्रखर राष्ट्रवादी विचारकों नें वहुलतावादी समाज में संवैधानिक मूल धारणाओं को ही सेकुलरीजम के रूप में परिभाषित किया है।बहुत दिनों तक राजनीतिक सत्ता में वर्चस्व प्राप्त कांग्रेस पार्टी की विचारधारा को बहुत से विचारकों नें स्यूडो सेकुलरीजम का नाम दिया - स्यूडो सेकुलरिजम यानि कि छद्म धर्म निरपेक्षता। माटी का सम्पादक धर्म की परिभाषा को क्षेत्रीय ,जातीय या भौगोलिक परिसीमाओं में निबन्धित नहीं करता। उसके लिये मानव धर्म सर्व कालिक ,सार्व भौमिक ,शाश्वत और विकास की सनातन प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग है। इस द्रष्टिकोण के परिपेक्ष्य में सेकुलरीजम का सच्चा अर्थ समस्त मानव जाति की सामूहिक कल्याण परक चिन्तना के साथ जुड़ जाताहै। और यदि हम इस अकाट्य सत्य को स्वीकार कर लें तो सेकुलरीजम को लेकर उठने वाले सारे विवाद अपने आप ही समाप्त हो जायेंगे।
पूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी की एक उग्र दीक्षित अनियन्त्रित धर्म मूलक व्याख्या ने ही निर्मम ह्त्या की साजिश रचवायी , इसके बाद जो हुआ वह धर्मान्धता का दूसरा घिनौना प्रदर्शन था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद दानवीय हिंसा का जो ताण्डव भारत के दूर -दराज क्षेत्रीय परिसीमाओं में फैला उसके पीछे भी चिन्तन की नकारात्मक और खोखली अमानसीय प्रवृत्ति का ही बोलबाला था। गुजरात में जो कुछ हुआ उस सच को नकारने के लिये भाषा के न जाने कितने मोहक मुहावरे गढ़े गये हैं पर इतनी हिम्मत किसी राजनेता में नही है कि वह सहज भाव से यह स्वीकार करे कि दूषित चिन्तन ही इस अमानवीय हिंसा की मूल प्रेरणा था और चिन्तन की इस घ्रणात्मक परिणित के लिये बहुत कुछ हमारे पारम्परिक मूल्यों की अधानुगामी प्रवत्ति ही है। हम नहीं जानते कि मानव जाति कभी वह दिन देख पायेगी जब नारी की कोख से जन्मा प्रत्येक शिशु जाति ,मतिवैभिन्य , संकीर्ण गुंजलक और क्षुद्र अहंकारी प्रवृत्तियों से मुक्त होकर एक सुसभ्य इन्सान के रूप में अवसर पा सकेगा। किसी काल में गौतम बुद्ध ने कहा था कि हे ब्राम्हण तुम बाहर की ज्योति जलाते हो , मै अन्तर की ज्योति प्रज्वलित करता हूँ। इस महापुरुष ने जिस व्यवस्था को 2600 वर्ष पहले स्थापित किया और जिसे भारत ने उन दिनों सुदूर एशिया के प्रान्तों तक फैलाया वह व्यवस्था स्वतन्त्र भारत के राजनीतिज्ञों की सत्ता लिप्सा के कारण स्वतन्त्रता के बाद कभी मूर्त रूप नहीं प्राप्त कर सकी। मैं स्वयं कभी -कभी अपने में लड़ता हूँ और यह लड़ाई दशकों से मेरे भीतर भिन्न -भिन्न प्रकार से जीत और हार के नये -नये परिद्रश्य उपस्थित करती रही है , मैं नहीं जानता कि मैं ब्राम्हण हूँ तो क्यों हूँ या क्षत्रिय हूँ तो क्यों हूँ , मेरी सारी मान्यतायें उधार ली हुई हैं। मेरा यह सारा मानना मेरे ऊपर आरोपित है।जो मेरे अपने हैं , जो मेरे जीवन का नितान्त निजी अनुभव है वह यह है कि मैं अभी तक सच्चा इन्सान नहीं बन सका हूँ ।प्रत्येक राजनीतिक परिवर्तन और प्रत्येक आन्दोलन मैं अपने व्यक्तिगत हित या अहित से जोड़ कर देखता रहा हूँ चाहिये यह था कि मैं इन परिवर्तनों को सम्पूर्ण राष्ट्रीय या समग्र मानव जाति के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखता। इस दिशा में मैंने अन्थक प्रयास किये हैं और कर रहा हूँ पर ऐसा लग रहा है कि अपनी मनोवृतियों पर विजय पाना मेरे लिये असम्भव सा हो गया है।बढ़ती उम्र के साथ मुझमें थोड़ी बहुत ऐसी हिम्मत तो आ गयी है कि मैं अपनी भूल को स्वीकार करूँ पर इतना आन्तरिक साहस मैं अभी तक नहीं बटोर सका हूँ कि मैं अपने को अपने ऊपर आरोपित सभी बन्धनों से मुक्त कर सकूँ। इतिहास के अन्धकार में अतीत काल से लेकर आज तक प्रकाश के कुछ बिन्दु मुझे मार्ग दिखाते रहे हैं। बुद्ध और गान्धी का दर्शन ऐसे ही प्रकाश बिन्दु हैं और ऐसे ही प्रकाश की थोड़ी बहुत आभा मुझे भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर में भी देखने को मिलती है। अपने ब्राम्हण होने के गर्व को त्यागकर मैं उन्हें सम्पूर्ण अन्तर श्रद्धा के साथ प्रणाम करता हूँ और मैं फिर से मानवता के समग्र वादी जीवन दर्शन के प्रति मैं अपनी प्रतिबद्धता दोहराता हूँ। कौन जाने मेरे मन की कोई रहस्यमयी शक्ति मुझे वह शक्ति प्रदान कर सके जिसके बल पर मैं विश्व मानव कहा जा सकने का अधकारी बनूँ। नरसी मेहता के शब्दों में मैं एक ऐसा विश्व मानव बनना चाहूंगा जो दूसरों की पीड़ा से अपने को परिशोधित कर उनके हित के लिये अपने स्वार्थ का बलिदान कर सके। "वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाने रे।"
पूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी की एक उग्र दीक्षित अनियन्त्रित धर्म मूलक व्याख्या ने ही निर्मम ह्त्या की साजिश रचवायी , इसके बाद जो हुआ वह धर्मान्धता का दूसरा घिनौना प्रदर्शन था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद दानवीय हिंसा का जो ताण्डव भारत के दूर -दराज क्षेत्रीय परिसीमाओं में फैला उसके पीछे भी चिन्तन की नकारात्मक और खोखली अमानसीय प्रवृत्ति का ही बोलबाला था। गुजरात में जो कुछ हुआ उस सच को नकारने के लिये भाषा के न जाने कितने मोहक मुहावरे गढ़े गये हैं पर इतनी हिम्मत किसी राजनेता में नही है कि वह सहज भाव से यह स्वीकार करे कि दूषित चिन्तन ही इस अमानवीय हिंसा की मूल प्रेरणा था और चिन्तन की इस घ्रणात्मक परिणित के लिये बहुत कुछ हमारे पारम्परिक मूल्यों की अधानुगामी प्रवत्ति ही है। हम नहीं जानते कि मानव जाति कभी वह दिन देख पायेगी जब नारी की कोख से जन्मा प्रत्येक शिशु जाति ,मतिवैभिन्य , संकीर्ण गुंजलक और क्षुद्र अहंकारी प्रवृत्तियों से मुक्त होकर एक सुसभ्य इन्सान के रूप में अवसर पा सकेगा। किसी काल में गौतम बुद्ध ने कहा था कि हे ब्राम्हण तुम बाहर की ज्योति जलाते हो , मै अन्तर की ज्योति प्रज्वलित करता हूँ। इस महापुरुष ने जिस व्यवस्था को 2600 वर्ष पहले स्थापित किया और जिसे भारत ने उन दिनों सुदूर एशिया के प्रान्तों तक फैलाया वह व्यवस्था स्वतन्त्र भारत के राजनीतिज्ञों की सत्ता लिप्सा के कारण स्वतन्त्रता के बाद कभी मूर्त रूप नहीं प्राप्त कर सकी। मैं स्वयं कभी -कभी अपने में लड़ता हूँ और यह लड़ाई दशकों से मेरे भीतर भिन्न -भिन्न प्रकार से जीत और हार के नये -नये परिद्रश्य उपस्थित करती रही है , मैं नहीं जानता कि मैं ब्राम्हण हूँ तो क्यों हूँ या क्षत्रिय हूँ तो क्यों हूँ , मेरी सारी मान्यतायें उधार ली हुई हैं। मेरा यह सारा मानना मेरे ऊपर आरोपित है।जो मेरे अपने हैं , जो मेरे जीवन का नितान्त निजी अनुभव है वह यह है कि मैं अभी तक सच्चा इन्सान नहीं बन सका हूँ ।प्रत्येक राजनीतिक परिवर्तन और प्रत्येक आन्दोलन मैं अपने व्यक्तिगत हित या अहित से जोड़ कर देखता रहा हूँ चाहिये यह था कि मैं इन परिवर्तनों को सम्पूर्ण राष्ट्रीय या समग्र मानव जाति के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखता। इस दिशा में मैंने अन्थक प्रयास किये हैं और कर रहा हूँ पर ऐसा लग रहा है कि अपनी मनोवृतियों पर विजय पाना मेरे लिये असम्भव सा हो गया है।बढ़ती उम्र के साथ मुझमें थोड़ी बहुत ऐसी हिम्मत तो आ गयी है कि मैं अपनी भूल को स्वीकार करूँ पर इतना आन्तरिक साहस मैं अभी तक नहीं बटोर सका हूँ कि मैं अपने को अपने ऊपर आरोपित सभी बन्धनों से मुक्त कर सकूँ। इतिहास के अन्धकार में अतीत काल से लेकर आज तक प्रकाश के कुछ बिन्दु मुझे मार्ग दिखाते रहे हैं। बुद्ध और गान्धी का दर्शन ऐसे ही प्रकाश बिन्दु हैं और ऐसे ही प्रकाश की थोड़ी बहुत आभा मुझे भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर में भी देखने को मिलती है। अपने ब्राम्हण होने के गर्व को त्यागकर मैं उन्हें सम्पूर्ण अन्तर श्रद्धा के साथ प्रणाम करता हूँ और मैं फिर से मानवता के समग्र वादी जीवन दर्शन के प्रति मैं अपनी प्रतिबद्धता दोहराता हूँ। कौन जाने मेरे मन की कोई रहस्यमयी शक्ति मुझे वह शक्ति प्रदान कर सके जिसके बल पर मैं विश्व मानव कहा जा सकने का अधकारी बनूँ। नरसी मेहता के शब्दों में मैं एक ऐसा विश्व मानव बनना चाहूंगा जो दूसरों की पीड़ा से अपने को परिशोधित कर उनके हित के लिये अपने स्वार्थ का बलिदान कर सके। "वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाने रे।"
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